आज का युग अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति और आधुनिक जीवनशैली का है, जिसमें बच्चे तेजी से नई प्रवृत्तियों को अपनाते जा रहे हैं। यह बदलाव एक ओर उन्हें अवसर प्रदान करता है, तो दूसरी ओर कई मानसिक, सामाजिक और नैतिक चुनौतियाँ भी लेकर आता है। आधुनिक संसाधनों और डिजिटल दुनिया की बढ़ती पकड़ बच्चों के व्यक्तित्व विकास को प्रभावित कर रही है, जिससे उनका नैसर्गिक बचपन कहीं न कहीं प्रभावित हो रहा है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि आधुनिकता और परंपरागत मूल्यों के बीच संतुलन स्थापित किया जाए ताकि प्रगति दिशाभ्रम में न बदले।
बच्चों के आधुनिकता की ओर आकर्षित होने के पीछे कई मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण होते हैं। इंटरनेट, सोशल मीडिया और डिजिटल मनोरंजन ने उनके जीवन में गहरी पैठ बना ली है। वे जिज्ञासावश नई चीजों को अपनाने की प्रवृत्ति रखते हैं, लेकिन यह आकर्षण कई बार बिना सोचे-समझे अनुकरण तक सीमित हो जाता है। मित्र समूहों का दबाव, सोशल मीडिया की प्रभावशाली छवियाँ, और माता-पिता के साथ संवाद की कमी बच्चों को भटकाव की ओर भी ले जा सकती है। जब वे अपनी जिज्ञासाओं और समस्याओं को परिवार के साथ साझा नहीं कर पाते, तो वे बाहरी माध्यमों पर निर्भर हो जाते हैं, जो हमेशा सकारात्मक नहीं होते।
आधुनिकता का अंधाधुंध अनुसरण बच्चों के मानसिक और सामाजिक विकास पर कई नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। डिजिटल लत के कारण वे वास्तविक सामाजिक संबंधों से दूर होते जा रहे हैं, जिससे उनकी संवेदनशीलता और सहानुभूति प्रभावित हो रही है। “तत्काल संतुष्टि” की मानसिकता उन्हें धैर्य और परिश्रम से दूर कर रही है। इसके अलावा, हिंसक वीडियो गेम, अनुचित ऑनलाइन सामग्री और आभासी दुनिया में अति व्यस्तता से उनकी नैतिक सोच और व्यवहार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद की कमी परिवारिक संबंधों को भी कमजोर कर सकती है।
इस चुनौती का समाधान आधुनिकता और नैतिकता के बीच समुचित संतुलन स्थापित करने में निहित है। सबसे पहले, माता-पिता को बच्चों के साथ नियमित संवाद बनाए रखना चाहिए ताकि वे अपनी भावनाएँ और चिंताएँ खुलकर साझा कर सकें। डिजिटल अनुशासन आवश्यक है, जिससे बच्चे स्क्रीन पर अधिक समय बिताने के बजाय शारीरिक और रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न हो सकें। आधुनिक संसाधनों का उपयोग केवल मनोरंजन तक सीमित न रहकर बच्चों के बौद्धिक और नैतिक विकास में सहायक बने, इसके लिए माता-पिता को जागरूकता और सतर्कता बरतनी होगी।
बचपन को आधुनिकता से पूर्णतः अलग करना संभव नहीं है, लेकिन सही मार्गदर्शन से इसे सकारात्मक दिशा दी जा सकती है। यदि माता-पिता बच्चों को आत्म-अनुशासन, नैतिकता और सहानुभूति सिखाने में सफल होते हैं, तो वे स्वयं सही-गलत का निर्णय लेने में सक्षम होंगे। आधुनिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग और परिवार में खुला संवाद ही इस समस्या का सबसे प्रभावी समाधान है। जब आधुनिकता मूल्यों और अनुशासन के साथ संतुलित होगी, तब यह प्रगति का साधन बनेगी, न कि दिशाभ्रम का कारण।