अमेरिका की विदेश नीति हमेशा से उसके सामरिक और आर्थिक हितों पर आधारित रही है, जिसमें अवसरवादिता और अस्थिरता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। भारत-अमेरिका संबंधों को प्रभावित करने वाले प्रमुख ऐतिहासिक घटनाक्रमों में 1960 के दशक में पाकिस्तान को दी गई सैन्य सहायता, 1971 के भारत-पाक युद्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप, और 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिका का भारत के प्रति असहयोगी रवैया शामिल हैं। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि अमेरिका अपने रणनीतिक उद्देश्यों के अनुरूप ही कार्य करता है, और भारत को इस संदर्भ में अत्यंत सतर्क रहने की आवश्यकता है।
1960 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान को दक्षिण एशिया में अपना प्रमुख सैन्य सहयोगी मानते हुए उसे अत्याधुनिक हथियारों से सशक्त किया। इसे सोवियत संघ के प्रभाव को नियंत्रित करने की रणनीति के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इसका सीधा असर भारत-पाकिस्तान शक्ति संतुलन पर पड़ा। अमेरिका ने पाकिस्तान को F-86 सबरे जेट, पैटन टैंक और उन्नत तोपखाने प्रदान किए, जिससे 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को आक्रामक क्षमता मिली। रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रपति बनने के बाद यह नीति और भी स्पष्ट हो गई। निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने पाकिस्तान को एक महत्वपूर्ण रणनीतिक भागीदार के रूप में देखा और भारत की अनदेखी की। 1970 में अमेरिका ने पाकिस्तान को F-104 स्टारफाइटर जेट, M-47 और M-48 टैंक सहित कई आधुनिक हथियार दिए, जबकि भारत को सैन्य सहायता देने से मना कर दिया गया।
1971 का भारत-पाक युद्ध अमेरिका की पाकिस्तान-समर्थक नीति का सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण था। जब भारत ने पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों को रोकने के लिए हस्तक्षेप किया, तो अमेरिका ने खुलकर पाकिस्तान का समर्थन किया। निक्सन प्रशासन ने भारत को दबाव में लाने के लिए USS Enterprise विमानवाहक पोत को बंगाल की खाड़ी में भेज दिया, ताकि भारत को युद्ध से पीछे हटने के लिए मजबूर किया जा सके। इसके अलावा, अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य खुफिया जानकारी, हथियार और कूटनीतिक समर्थन प्रदान किया। लेकिन भारत ने अपनी रणनीतिक चतुराई से सोवियत संघ के साथ ‘भारत-सोवियत शांति और मित्रता संधि’ पर हस्ताक्षर किए, जिससे सोवियत नौसेना ने बंगाल की खाड़ी में अमेरिकी युद्धपोतों का मुकाबला किया और अमेरिका को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस प्रकार, अमेरिका की खुली दुश्मनी के बावजूद, भारत ने 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान को पराजित कर बांग्लादेश को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।
1999 के कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिका की भूमिका फिर से संदेह के घेरे में आ गई। पाकिस्तान ने भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ कर कारगिल पर कब्जा कर लिया, और भारत ने अमेरिका से सैटेलाइट इमेजरी साझा करने का अनुरोध किया ताकि घुसपैठियों की सही स्थिति का पता लगाया जा सके। अमेरिका, जिसके पास KH-11 और Lacrosse जैसे उन्नत जासूसी उपग्रहों से स्पष्ट जानकारी थी, ने भारत को यह खुफिया जानकारी देने से इनकार कर दिया। अमेरिका का यह रवैया तब और भी चिंताजनक हो गया जब यह पता चला कि वह पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की तैनाती के बारे में जानकारी रखता था, लेकिन उसने भारत को कोई चेतावनी नहीं दी। हालांकि, अंततः अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को वाशिंगटन बुलाकर पाकिस्तानी सेना को वापस बुलाने के लिए मजबूर किया, लेकिन यह भारत के साथ निष्पक्ष व्यवहार नहीं था, बल्कि वैश्विक दबाव और रणनीतिक संतुलन का परिणाम था।
इतिहास यह दर्शाता है कि अमेरिका की विदेश नीति केवल उसके राष्ट्रीय हितों पर केंद्रित होती है और वह परिस्थितियों के अनुसार अपने रुख में बदलाव करता है। 1960 के दशक में पाकिस्तान को हथियार देने से लेकर 1971 में भारत के खिलाफ खुले समर्थन और 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारत को खुफिया जानकारी न देने तक, अमेरिका ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसकी नीतियां भरोसेमंद नहीं हैं। भारत को अमेरिका के साथ अपने संबंधों में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और केवल आश्वासनों के आधार पर निर्णय लेने के बजाय अपनी रणनीतिक और सैन्य आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देनी चाहिए। अमेरिका की अवसरवादी नीति भारत के लिए एक स्थायी चेतावनी है कि उसे किसी भी अंतरराष्ट्रीय संबंध में पूरी तरह निर्भर नहीं रहना चाहिए और अपने दीर्घकालिक हितों की रक्षा के लिए बहुपक्षीय कूटनीति तथा आत्मनिर्भरता को अपनाना चाहिए।