जैन मत भारत की श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन मत और दर्शन है। जैन अर्थात् कर्मों का नाश करनेवाले ‘जिन भगवान’ के अनुयायी। सिन्धु घाटी से मिले जैन अवशेष जैन मत को सबसे प्राचीन मत का दर्जा देते है।जैन ग्रंथो (आगम्) के अनुसार वर्तमान में प्रचलित जैन धर्म भगवान आदिनाथ के समय से प्रचलन में आया। यहीं से जो तीर्थंकर परम्परा प्रारम्भ हुयी वह भगवान महावीर या वर्धमान तक चलती रही जिन्होंने ईसा से 527 वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था।
जैन मान्यता के अनुसार जैन धर्म अनादि काल से चला आया है अनंत काल तक चलता रहेगा। इस धर्म का प्रचार करने के लिये समय-समय पर अनेक तीर्थंकरों का आविर्भाव होता रहता है। जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों में ऋषभ प्रथम और महावीर अंतिम तीर्थंकर थे।
महावीर के ११ मुख्य शिष्य थे – इंद्रभूति (गौतम गणधर),अग्निभूति ,वायुभूति , व्यक्तस्वामी, सुधर्माचार्य , मंडितपुत्र, मौर्यपुत्र, अकंपित , अचलभ्राता, मेतार्यस्वामी और प्रभासस्वाम।
महावीर स्वयं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे लेकिन उनके सभी गणधर ब्राह्मण थे। इनमें गौतम स्वामी और सुधर्माचार्य को छोड़कर नौ गणधरों ने महावीर भगवान के जीवन काल में ही देह त्याग किया। जिस रात्रि को महावीर ने निर्वाण पाया उसी रात्रि को इंद्रभूति गौतम गणधर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।महावीर-निर्वाण के पश्चात् सुधर्माचार्य २० वर्ष तक जैन संघ के अधिपति रहे। बाद में संघ का भार जम्बूस्वामी के सुपुर्द कर दिया गया और इस प्रकार जैन परंपरा आगे बढ़ती रही। जम्बूस्वामी के पश्चात् केवलज्ञान और निर्वाण-गमन के द्वार बंद हो गए।
पार्श्वनाथ की मान्यता का अनुसरण कर लिच्छवि कुलोत्पन्न महावीर ने चतुर्विध संघ को दृढ़ बनाने के लिये गणतंत्रवादी आदर्श पर संघ के नियमों को संघटित किया। निर्ग्रंथ धर्म का प्रचार करने के लिए ज्ञातपुत्र महावीर ने बिहार में राजगृह, चंपा (भागलपुर), मछिया (मुंगेर), वैशाली (बसाढ़) और मिथिला (जनकपुर) आदि तथा उत्तर-प्रदेश में बनारस, कौशांबी (कोसम) अयोध्या, श्रावस्ति (सहेट-महेट) और स्थूणा (स्थानेश्वर) आदि स्थानों में विहार किया। उस समय यही आर्य क्षेत्र कहलाता था, शेष क्षेत्र अनार्य था।