पात्र परिचय

अंबिका : ग्राम की एक वृद्धा
मल्लिका : वृद्धा की पुत्री
कालिदास : कवि
दंतुल : राजपुरुष
मातुल : कवि मातुल
निक्षेप : ग्राम-पुरुष
विलोम : ग्राम-पुरुष
रंगिणी : नागरी
संगिनी : नागरी
अनुस्वार : अधिकारी
अनुनासिक: अधिकारी
प्रियंगुमंजरी: राज कन्या — कवि-पत्नी

आषाढ़ का एक दिन-अंक 1

परदा उठने से पूर्व हलका-हलका मेघ-गर्जन और वर्षा का शब्द, जो परदा उठने के अनंतर भी कुछ क्षण चलता रहता है। फिर धीरे-धीरे धीमा पड़ कर विलीन हो जाता है।
परदा धीरे-धीरे उठता है।
एक साधारण प्रकोष्ठ। दीवारें लकड़ी की हैं, परंतु निचले भाग में चिकनी मिट्टी से पोती गई हैं। बीच-बीच में गेरू से स्वस्तिक-चिह्न बने हैं। सामने का द्वार अँधेरी ड्योढ़ी में खुलता है। उसके दोनों ओर छोटे-छोटे ताक हैं जिनमें मिट्टी के बुझे हुए दीए रखे हैं। बाईं ओर का द्वार दूसरे प्रकोष्ठ में जाने के लिए है। द्वार खुला होने पर उस प्रकोष्ठ में बिछे तल्प का एक कोना ही दिखाई देता है। द्वारों के किवाड़ भी मिट्टी से पोते गए हैं और उन पर गेरू एवं हल्दी से कमल तथा शंख बनाए गए हैं। दाईं ओर बड़ा-सा झरोखा है, जहाँ से बीच-बीच में बिजली कौंधती दिखाई देती है।
प्रकोष्ठ में एक ओर चूल्हा है। आस-पास मिट्टी और काँसे के बरतन सहेज कर रखे हैं। दूसरी ओर , झरोखे से कुछ हट कर तीन-चार बड़े-बड़े कुंभ रखे हैं जिन पर कालिख और काई जमी है। उन्हें कुशा से ढक कर ऊपर पत्थर रख दिए गए हैं।
झरोखे से सटा एक लकड़ी का आसन है , जिस पर बाघ-छाल बिछी है। चूल्हे के निकट दो चौकियाँ हैं। उन्हीं में से एक पर बैठी अंबिका छाज में धान फटक रही है। एक बार झरोखे की ओर देख कर वह लंबी साँस लेती है फिर व्यस्त हो जाती है।
सामने का द्वार खुलता है और मल्लिका गीले वस्त्रों में काँपती-सिमटती अंदर आती है। अंबिका आँखें झुकाए व्यस्त रहती है। मल्लिका क्षण-भर ठिठकती है , फिर अंबिका के पास आ जाती है।
मल्लिका : आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा, माँ !…ऐसी धारासार वर्षा ! दूर-दूर तक की उपत्यकाएँ भीग गईं।…और मैं भी तो ! देखो न माँ, कैसी भीग गई हूँ !
अंबिका उस पर सिर से पैर तक एक दृष्टि डाल कर फिर व्यस्त हो जाती है। मल्लिका घुटनों के बल बैठ कर उसके कंधे पर सिर रख देती है।
गई थी कि दक्षिण से उड़ कर आती बकुल-पंक्तियों को देखूँगी, और देखो सब वस्त्र भिगो आई हूँ।
उसके केशों को चूम कर खड़ी होती हुई ठंड से सिहर जाती है।
सूखे वस्त्र कहाँ हैं माँ ? इस तरह खड़ी रही तो जुड़ा जाऊँगी।…तुम बोलतीं क्यों नहीं ?
अंबिका आक्रोश की दृष्टि से उसे देखती है।
अंबिका : सूखे वस्त्र अंदर तल्प पर हैं।
मल्लिका : तुमने पहले से ही निकाल कर रख दिए ?
अंदर को चल देती है।
तुम्हें पता था मैं भीग जाऊँगी। और मैं जानती थी तुम चिंतित होगी। परंतु माँ…
द्वार के पास मुड़ कर अंबिका की ओर देखती है।
…मुझे भीगने का तनिक खेद नहीं। भीगती नहीं तो आज मैं वंचित रह जाती।
द्वार से टेक लगा लेती है।
चारों ओर धुआँरे मेघ घिर आए थे। मैं जानती थी वर्षा होगी। फिर भी मैं घाटी की पगडंडी पर नीचे-नीचे उतरती गई। एक बार मेरा अंशुक भी हवा ने उड़ा दिया। फिर बूँदें पड़ने लगीं।
अंबिका से आँखें मिल जाती हैं।
वस्त्र बदल लूँ, फिर आ कर तुम्हें बताती हूँ। वह बहुत अद्भुत अनुभव था माँ, बहुत अद्भुत।
अंदर चली जाती है। अंबिका उठ कर फटके हुए धान को एक कुंभ में डाल देती है और दूसरे कुंभ से नया धान निकाल लेती है। अंदर के प्रकोष्ठ से मल्लिका के शब्द सुनाई देते रहते हैं। बीच-बीच में उसकी झलक भी दिखाई दे जाती है।
नील कमल की तरह कोमल और आद्र्र, वायु की तरह हल्का और स्वप्न की तरह चित्रमय ! मैं चाहती थी उसे अपने में भर लूँ और आँखें मूँद लूँ।…मेरा तो शरीर भी निचुड़ रहा है माँ ! कितना पानी इन वस्त्रों ने पिया है ! ओह !
शीत की चुभन के बाद उष्णता का यह स्पर्श !
गुनगुनाने लगती है।
कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयनम्रै:…गीले वस्त्र कहाँ डाल दूँ माँ ? यहीं रहने दूँ ?
मृदुपवनविधूतैर्मंदमंदं चलद्भि:…अपहृतमिव चेतस्तोयदै: सेंद्रचापै:… पथिकजनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम।
बाहर आ जाती है।
माँ, आज के वे क्षण मैं कभी नहीं भूल सकती। सौंदर्य का ऐसा साक्षात्कार मैंने कभी नहीं किया। जैसे वह सौंदर्य अस्पृश्य होते हुए भी मांसल हो। मैं उसे छू सकती थी, देख सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता है। मैं जीवन में पहली बार समझ पाई कि क्यों कोई पर्वत-शिखरों को सहलाती मेघ-मालाओं में खो जाता है, क्यों किसी को अपने तन-मन की अपेक्षा आकाश में बनते-मिटते चित्रों का इतना मोह हो रहता है।…क्या बात है माँ ? इस तरह चुप क्यों हो ?
अंबिका : देख रही हो मैं काम कर रही हूँ।
मल्लिका : काम तो तुम हर समय करती हो। परंतु हर समय इस तरह चुप नहीं रहतीं।
अंबिका के पास आ बैठती है। अंबिका चुपचाप धान फटकती रहती है। मल्लिका उसके हाथ से छाज ले लेती है।
मैं तुम्हें काम नहीं करने दूँगी।…मुझसे बात करो।
अंबिका : क्या बात करूँ ?
मल्लिका : कुछ भी कहो। मुझे डाँटो कि भीग कर क्यों आई हूँ। या कहो कि तुम थक गई हो, इसलिए शेष धान मैं फटक दूँ। या कहो कि तुम घर में अकेली थीं, इसलिए तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा था।
अंबिका : मुझे सब अच्छा लगता है।
छाज उससे ले लेती है।
और मैं घर में दुकेली कब होती हूँ ? तुम्हारे यहाँ रहते मैं अकेली नहीं होती ?
मल्लिका : मैं तुम्हें काम नहीं करने दूँगी।
फिर छाज उसके हाथ से ले लेती है और कुंभों के पास रख आती है।
मेरे घर में रहते भी तुम अकेली होती हो ?…कभी तो मेरी भर्त्सना करती हो कि मैं घर में रह कर तुम्हारे सब कामों में बाधा डालती हूँ, और कभी कहती हो…
पीठ के पीछे से उसके गले में बाँहें डाल देती है।
मुझे बताओ तुम इतनी गंभीर क्यों हो ?
अंबिका : दूध औटा दिया है। शर्करा मिला लो और पी लो…।
मल्लिका : नहीं, तुम पहले बताओ।
अंबिका : और जा कर थोड़ी देर तल्प पर विश्राम कर लो। मुझे अभी…।
मल्लिका : नहीं माँ, मुझे विश्राम नहीं करना है। थकी कहाँ हूँ जो विश्राम करूँ ? मुझे तो अब भी अपने में बरसती बूँदों के पुलक का अनुभव हो रहा है। रोम अभी तक सीज रहे हैं।…तुम बताती क्यों नहीं हो ? ऐसे करोगी तो मैं भी तुमसे बात नहीं करूँगी।
अंबिका कुछ न कह कर आँचल से आँखें पोंछती है और उसे पीछे से हटा कर पास की चौकी पर बैठा देती है। मल्लिका क्षण भर चुपचाप उसकी ओर देखती रहती है।
क्या हुआ है, माँ ! तुम रो क्यों रही हो ?
अंबिका : कुछ नहीं मल्लिका ! कभी बैठे-बैठे मन उदास हो जाता है।
मल्लिका : बैठे-बैठे मन उदास हो जाता है, परंतु बैठे-बैठे रोया तो नहीं जाता।…तुम्हें मेरी सौगंध है माँ, जो मुझे नहीं बताओ।
दूर कुछ कोलाहल और घोड़ों की टापों का शब्द सुनाई देता है। अंबिका उठ कर झरोखे के पास चली जाती है। मल्लिका क्षण-भर बैठी रहती है , फिर वह भी जा कर झरोखे से देखने लगती है। टापों का शब्द पास आ कर दूर चला जाता है।
मल्लिका : ये कौन लोग हैं माँ ?
अंबिका : संभवत: राज्य के कर्मचारी हैं।
मल्लिका : ये यहाँ क्या कर रहे हैं ?
अंबिका : जाने क्या कर रहे हैं !…कभी वर्षों में ये आकृतियाँ यहाँ दिखाई देती हैं। और जब भी दिखाई देती हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है। कभी युद्ध की सूचना आती है कभी महामारी की।
लंबी साँस लेती है।
पिछली महामारी में जब तुम्हारे पिता की मृत्यु हुई, तब भी मैंने ये आकृतियाँ यहाँ देखी थीं।
मल्लिका सिर से पैर तक सिहर जाती है।
मल्लिका : परंतु आज ये लोग यहाँ किसलिए आए हैं ?
अंबिका : न जाने किसलिए आए हैं।
अंबिका फिर छाज उठाने लगती है , परंतु मल्लिका उसे बाँह से पकड़ कर रोक लेती है।
मल्लिका : माँ, तुमने बात नहीं बताई।
अंबिका पल-भर उसे स्थिर दृष्टि से देखती रहती है। उसकी आँखें झुक जाती हैं।
अंबिका : अग्निमित्र आज लौट आया है।
छाज उठा कर अपने स्थान पर चली जाती है। मल्लिका वहीं खड़ी रहती है।
मल्लिका : लौट आया है ? कहाँ से ?
अंबिका : जहाँ मैंने उसे भेजा था।
मल्लिका : तुमने भेजा था ?
होंठ फड़फड़ाने लगते हैं। वह बढ़ कर अंबिका के पास आ जाती है।
किंतु मैंने तुमसे कहा था, अग्निमित्र को कहीं भेजने की आवश्यकता नहीं है।
क्रमश: स्वर में और उत्तेजना आ जाती है।
तुम जानती हो मैं विवाह नहीं करना चाहती, फिर उसके लिए प्रयत्न क्यों करती हो ? तुम समझती हो मैं निरर्थक प्रलाप करती हूँ ?
अंबिका धान को मुट्ठी में ले-ले कर जैसे मसलती हुई छाज में गिराने लगती है।
अंबिका : मैं देख रही हूँ तुम्हारी बात ही सच होने जा रही है। अग्निमित्र संदेश लाया है कि वे लोग इस संबंध के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। कहते हैं…
मल्लिका : क्या कहते हैं ? क्या अधिकार है उन्हें कुछ भी कहने का ? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है ?
अंबिका : मैं कब कहती हूँ मुझे अधिकार है ?
मल्लिका सिर झटक कर अपनी उत्तेजना को दबाने का प्रयत्न करती है।
मल्लिका : मैं तुम्हारे अधिकार की बात नहीं कह रही।
अंबिका : तुम न कहो, मैं कह रही हूँ। आज तुम्हारा जीवन तुम्हारी संपत्ति है। मेरा तुम पर कोई अधिकार नहीं है।
मल्लिका पास की चौकी पर बैठ कर उसके कंधे पर हाथ रख देती है।
मल्लिका : ऐसा क्यों नहीं कहती हो ?…तुम मुझे समझने का प्रयत्न क्यों नहीं करती ?
अंबिका उसका हाथ कंधे से हटा देती है।
अंबिका : मैं जानती हूँ तुम पर आज अपना अधिकार भी नहीं है। किंतु…इतना बड़ा अपवाद मुझसे नहीं सहा जाता है।
मल्लिका बाँहें घुटनों पर रख कर उन पर सिर टिका लेती है।
मल्लिका : मैं जानती हूँ माँ, अपवाद होता है। तुम्हारे दु:ख की बात भी जानती हूँ। फिर भी मुझे अपराध का अनुभव नहीं होता। मैंने भावना में एक भाव का वरण किया है। मेरे लिए वह संबंध और सब संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है…।
अंबिका के चेहरे पर रेखाएँ खिंच जाती हैं।
अंबिका : और मुझे ऐसी भावना से वितृष्णा होती है। पवित्र, कोमल और अनश्वर ! हँ !
मल्लिका : माँ, तुम मुझ पर विश्वास कयों नहीं करती ?
अंबिका : तुम जिसे भावना कहती हो वह केवल छलना और आत्म-प्रवंचना है।…भावना में भाव का वरण किया है !…मैं पूछती हूँ भावना में भाव का वरण क्या होता है ? उससे जीवन की आवश्यकताएँ किस तरह पूरी होती हैं ?…भावना में भाव का वरण ! हँ !
मल्लिका क्षण भर छत की ओर देखती रहती है !
मल्लिका : जीवन की स्थूल आवश्यकताएँ ही तो सब कुछ नहीं हैं, माँ ! उनके अतिरिक्त भी तो बहुत कुछ है।
अंबिका फिर धान फटकने लगती है।
अंबिका : होगा, मैं नहीं जानती।
मल्लिका कुछ क्षण अंबिका की ओर देखती रहती है।
मल्लिका : सच तो यह है माँ, कि ग्राम के अन्य व्यक्तियों की तरह तुम भी उन्हें संदेह और वितृष्णा की दृष्टि से देखती हो।
अंबिका : ग्राम के अन्य लोग उसे उतना नहीं जानते जितना में जानती हूँ।
क्षण भर दोनों की आँखें मिली रहती हैं।
मैं उससे घृणा करती हूँ।
मल्लिका के चेहरे पर व्यथा , आवेश तथा विवशता की रेखाएँ एक साथ खिंच जाती हैं।
मल्लिका : माँ !
अंबिका : अन्य लोगों को उससे क्या प्रयोजन है ! परंत मुझे है। उसके प्रभाव से मेरा घर नष्ट हो रहा है।
ड्योढ़ी की ओर से कालिदास के शब्द सुनाई देने लगते हैं। अंबिका के माथे की रेखाएँ गहरी हो जाती हैं। वह छाज लिए उठ खड़ी होती है। क्षण भर ड्योढ़ी की ओर देखती रहती है , फिर अंदर को चल देती है।
मल्लिका : ठहरो माँ, तुम चल क्यों दीं ?
अंबिका : माँ का जीवन भावना नहीं, कर्म है। उसे घर में बहुत कुछ करना है।
चली जाती है। कालिदास एक हरिण-शावक को बाँहों में लिए पुचकारता हुआ आता है। हरिण शावक के शरीर से लहू टपक रहा है।
कालिदास : हम जिएँगे, हरिणशावक! जिएँगे न ? एक बाण से आहत हो कर हम प्राण नहीं देंगे। हमारा शरीर कोमल है, तो क्या हुआ ? हम पीड़ा सह सकते हैं। एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण दे भी सकता है। हमें नए प्राण मिल जाएँगे। हम कोमल आस्तरण पर विश्राम करेंगे। हमारे अंगों पर घृत का लेप होगा। कल हम फिर वनस्थली में घूमेंगे। कोमल दूर्वा खाएँगे। खाएँगे न ?
मल्लिका अपने को सहेज कर द्वार की ओर जाती है।
मल्लिका : यह आहत हरिणशावक ?…यहाँ ऐसा कौन व्यक्ति है जिसने इसे आहत किया ? क्या दक्षिण की तरह यहाँ भी… ?
कालिदास : आज ग्राम-प्रदेश में कई नई आकृतियाँ देख रहा हूँ।
झरोखे के पास जा कर आसन पर बैठ जाता है।
राज्य के कुछ कर्मचारी आए हैं।
हरिणशावक को वक्ष से सटा कर थपथपाने लगता है।
हम सोएँगे ? हाँ, हम थोड़ी देर सो लेंगे तो हमारी पीड़ा दूर हो जाएगी। परंतु उससे पहले हमें थोड़ा दूध पी लेना है।…मल्लिका, थोड़ा दूध हो तो किसी भाजन में ले आओ।
मल्लिका : माँ ने दूध औटा कर रखा है। देखती हूँ।
चूल्हे के निकट रखे बरतनों के पास जा कर देखने लगती है।
अभी-अभी दो-तीन राज-कर्मचारियों को हमने घोड़ों पर जाते देखा है। माँ कहती हैं कि जब भी ये लोग आते हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है। वर्षा के रोमांच के बाद…मुझे यह सब बहुत विचित्र लगा।
दूध का बरतन उठा कर दूध खुले बरतन में उँड़ेलने लगती है।
माँ आज बहुत रुष्ट हैं।
कालिदास हरिणशावक को बाँहों में झुलाने लगता है।
कालिदास : हम पहले से सुखी हैं। हमारी पीड़ा धीरे-धीरे दूर हो रही है। हम स्वस्थ हो रहे हैं।…न जाने इसके रूई जैसे कोमल शरीर पर उससे बाण छोड़ते बना कैसे ? यह कुलाँच भरता मेरी गोद में आ गया। मैंने कहा, तुझे वहाँ ले चलता हूँ जहाँ तुझे अपनी माँ की-सी आँखें और उसका-सा ही स्नेह मिलेगा।
मल्लिका की ओर देखता है। मल्लिका दूध लिए पास आ जाती है।
मल्लिका : सच, माँ आज बहुत रुष्ट हैं। माँ को अनुमान हो गया होगा कि वर्षा में मैं तुम्हारे साथ थी, नहीं तो इस तरह भीग कर न आती। माँ को अपवाद की बहुत चिंता रहती है…।
कालिदास : दूध मुझे दे दो और इसे बाँहों में ले लो।
दूध का भाजन उसके हाथ से ले लेता है। मल्लिका हरिणशावक को बाँहों में ले कर उसका मुँह दूध के निकट ले जाती है। कालिदास भाजन को उसके और निकट कर देता है।
हम दूध नहीं पिएँगे ? नहीं हम ऐसा हठ नहीं करेंगे ! हम दूध अवश्य पिएँगे।
राजपुरुष दंतुल ड्योढ़ी से आ कर द्वार के पास रुक जाता है। क्षण-भर वह उन्हें देखता रहता है। कालिदास हरिण का मुँह दूध से मिला देता है।
ऐसे…ऐसे।
दंतुल बढ़ कर उनके निकट आता है।
दंतुल : दूध पिला कर इसके माँस को और कोमल कर लेना चाहते हो ?
कालिदास और मल्लिका चौंक कर उसे देखते हैं। मल्लिका हरिणशावक को लिए थोड़ा पीछे हट जाती है। कालिदास दूध का भाजन आसन पर रख देता है।
कालिदास : जहाँ तक मैं जानता हूँ, हम लोग परिचित नहीं हैं। तुम्हारा एक अपरिचित घर में आने का साहस कैसे हुआ ?
दंतुल एक बार मल्लिका की ओर देखता है , फिर कालिदास की ओर।
दंतुल : कैसी आकस्मिक बात है कि ऐसा ही प्रश्न मैं तुमसे पूछना चाहता था। हमारा कभी का परिचय नहीं, फिर भी मेरे बाण से आहत हरिण को उठा ले आने में तुम्हें संकोच नहीं हुआ ? यह तो कहो कि द्वार तक रक्त-बिंदुओं के चिह्न बने हैं, अन्यथा इन बादलों से घिरे दिन में मैं तुम्हारा अनुसरण कर पाता ?
कालिदास : देख रहा हूँ कि तुम इस प्रदेश के निवासी नहीं हो।
दंतुल व्यंग्यात्मक हँसी हँसता है।
दंतुल : मैं तुम्हारी दृष्टि की प्रशंसा करता हूँ। मेरी वेशभूषा ही इस बात का परिचय देती है कि मैं यहाँ का निवासी नहीं हूँ।
कालिदास : मैं तुम्हारी वेशभूषा को देख कर नहीं कह रहा।
दंतुल : तो क्या मेरे ललाट की रेखाओं को देख कर ? जान पड़ता है चोरी के अतिरिक्त सामुद्रिक का भी अभ्यास करते हो।
मल्लिका चोट खाई-सी कुछ आगे आती है।
मल्लिका : तुम्हें ऐसा लांछन लगाते लज्जा नहीं आती ?
दंतुल : क्षमा चाहता हूँ, देवि। परंतु यह हरिणशावक, जिसे बाँहों में लिए हैं, मेरे बाण से आहत हुआ है। इसलिए यह मेरी संपत्ति है। मेरी संपत्ति मुझे लौटा तो देंगी ?
कालिदास : इस प्रदेश में हरिणों का आखेट नहीं होता राजपुरुष ! तुम बाहर से आए हो, इसलिए इतना ही पर्याप्त है कि हम इसके लिए तुम्हें अपराधी न मानें।
दंतुल : तो राजपुरुष के अपराध का निर्णय ग्रामवासी करेंगे ! ग्रामीण युवक, अपराध और न्याय का शब्दार्थ भी जानते हो !
कालिदास : शब्द और अर्थ राजपुरुषों की संपत्ति है, जान कर आश्चर्य हुआ।
दंतुल : समझदार व्यक्ति जान पड़ते हो। फिर भी यह नहीं जानते हो कि राजपुरुषों के अधिकार बहुत दूर तक जाते हैं। मुझे देर हो रही है। यह हरिणशावक मुझे दे दो।
कालिदास : यह हरिणशावक इस पार्वत्य-भूमि की संपत्ति है, राजपुरुष ! और इसी पार्वत्य-भूमि के निवासी हम इसके सजातीय हैं। तुम यह सोच कर भूल कर रहे हो कि हम इसे तुम्हारे हाथ में सौंप देंगे।…मल्लिका, इसे अंदर ले जा कर तल्प पर या किसी आस्तरण पर…
अंबिका सहसा अंदर से आती है।
अंबिका : इस घर के तल्प और आस्तरण हरिणशावकों के लिए नहीं हैं।
मल्लिका : तुम देख रही हो माँ… !
अंबिका : हाँ, देख रही हूँ। इसीलिए तो कह रही हूँ। तल्प और आस्तरण मनुष्यों के सोने के लिए हैं, पशुओं के लिए नहीं।
कालिदास : इसे मुझे दे दो, मल्लिका !
दूध का भाजन नीचे रख देता है और बढ़ कर हरिणशावक को अपनी बाँहों में ले लेता है।
इसके लिए मेरी बाँहों का आस्तरण ही पर्याप्त होगा। मैं इसे घर ले जाऊँगा।
द्वार की ओर चल देता है।
दंतुल : और राजपुरुष दंतुल तुम्हें ले जाते देखता रहेगा !
कालिदास : यह राजपुरुष की रुचि पर निर्भर करता है।
बिना उसकी ओर देखे ड्योढ़ी में चला जाता है।
दंतुल : राजपुरुष की रुचि-अरुचि क्या होती है, संभवत: इसका परिचय तुम्हें देना आवश्यक होगा।
कालिदास बाहर चला जाता है। केवल उसका शब्द ही सुनाई देता है।
कालिदास : संभवत:।
दंतुल : संभवत: ?
तलवार की मूठ पर हाथ रखे उसके पीछे जाना चाहता है। मल्लिका शीघ्रता से द्वार के सामने खड़ी हो जाती है।
मल्लिका : ठहरो, राजपुरुष ! हरिणशावक के लिए हठ मत करो। तुम्हारे लिए प्रश्न अधिकार का है, उनके लिए संवेदना का, कालिदास नि:शस्त्र होते हुए भी तुम्हारे शस्त्र की चिंता नहीं करेंगे।
दंतुल : कालिदास ?…तुम्हारा अर्थ है कि मैं जिनसे हरिणशावक के लिए तर्क कर रहा था, वे कवि कालिदास हैं ?
मल्लिका : हाँ, हाँ। परंतु तुम कैसे जानते हो कि कालिदास कवि हैं ?
दंतुल : कैसे जानता हूँ ! उज्जयिनी की राज्य-सभा का प्रत्येक व्यक्ति ‘ऋतु-संहार’ के लेखक कवि कालिदास को जानता है।
मल्लिका : उज्जयिनी की राज्य-सभा का प्रत्येक व्यक्ति उन्हें जानता है ?
दंतुल : सम्राट ने स्वयं ‘ऋतु-संहार’ पढ़ा और उसकी प्रशंसा की है। इसलिए आज उज्जयिनी का राज्य ‘ऋतु-संहार’ के लेखक का सम्मान करना और उन्हें राजकवि का आसन देना चाहता है। आचार्य वररुचि इसी उद्देश्य से उज्जयिनी से यहाँ आए हैं।
मल्लिका सुन कर स्तंभित-सी हो रहती है।
मल्लिका : उज्जयिनी का राज्य उन्हें सम्मान देना चाहता है ? राजकवि का आसन… ?
दंतुल : मुझे खेद है मैंने उनके साथ अशिष्टता का व्यवहार किया। मुझे जा कर उनसे क्षमा माँगनी चाहिए।
चला जाता है। मल्लिका कुछ क्षण उसी तरह खड़ी रहती है। फिर सहसा जैसे उसकी चेतना लौट आती है। अंबिका इस बीच दूध का भाजन उठा कर कोने में रख देती है। जिस पात्र में पहले दूध रखा था , उसे देखती है। उसमें जो दूध शेष है , उसे एक छोटे पात्र में डाल कर शक्कर मिलाने लगती है। हाथ ऐसे अस्थिर हैं जैसे वह अंदर ही अंदर बहुत उत्तेजित हो। मल्लिका निचला होंठ दाँतों में दबाए दौड़ कर उसके निकट आती है।
मल्लिका : तुमने सुना, माँ…राज्य उन्हें राजकवि का आसन देना चाहता है ?
अंबिका हाथ से गिरते दूध के पात्र को किसी तरह सँभाल लेती है।
अंबिका : गीले वस्त्र मैंने सूखने के लिए फैला दिए हैं। थोड़ा-सा दूध शेष है, इसमें शर्करा मिला दी है।
मल्लिका : तुमने सुना नहीं माँ, राजपुरुष क्या कह रहा था ?
अंबिका : दूध पी लो। आशा करती हूँ कि अब यहाँ किसी और का आतिथ्य नहीं होना है।
मल्लिका : आतिथ्य ?…मैं चाहती हूँ आज इस घर में सारे संसार का आतिथ्य कर सकूँ।
दूध का पात्र अंबिका के हाथ से ले लेती है।
तुम्हें इस दूध से नहला दूँ, माँ ?
पात्र ऊँचा उठा देती है। अंबिका पात्र उसके हाथ से ले लेती है।
अंबिका : मैं दूध से बहुत नहा चुकी हूँ।
मल्लिका : तुम कितनी निष्ठुर हो, माँ ! तुमने सुना नहीं, राज्य उन्हें सम्मान दे रहा है? फिर भी तुम…।
अंबिका : दूध पी लो। और फिर से वर्षा में भीगने का मोह न हो, तो मैं तुम्हारे लिए आस्तरण बिछा दूँ।…मैं जैसी निष्ठुर हूँ, रहने दो।
मल्लिका उसके गले में बाँहें डाल देती है।
मल्लिका : नहीं, तुम निष्ठुर नहीं हो। मैंने कब कहा है तुम निष्ठुर हो ?
अंबिका : नहीं, तुमने नहीं कहा। दूध पी लो।
मल्लिका दूध का पात्र उसके हाथ से ले कर एक घूँट में दूध पी जाती है और पात्र कोने में रख देती है। फिर अंबिका का हाथ खींच कर उसे बिठा देती है और स्वयं उसकी गोदी में लेट जाती है।
मल्लिका : माँ, तुम सोच सकती हो आज मैं कितनी प्रसन्न हूँ ?
अंबिका : मेरे पास कुछ भी सोचने की शक्ति नहीं है। अब उठ जाने दो, मुझे बहुत काम करना है।
उठने का प्रयत्न करती है मल्लिका उसे रोके रहती है।
मल्लिका : नहीं, उठो नहीं। इसी तरह बैठी रहो…राज्य उन्हें सम्मान दे रहा है, माँ ! उन्हें राजकवि का आसन प्राप्त होगा…
सहसा अंबिका की गोदी से हट कर बैठ जाती है।
…उस व्यक्ति को, जिसे उसके निकट के लोगों ने आज तक समझने का प्रयत्न नहीं किया। जिसे घर में और घर से बाहर केवल लांछना और प्रताड़ना ही मिली है।…अब तो तुम विश्वास करती हो माँ, कि मेरी भावना निराधार नहीं है।
अंबिका उठ खड़ी होती है।
अंबिका : मैं कह चुकी हूँ, मेरी सोचने-समझने की शक्ति जड़ हो चुकी है।
मल्लिका : क्यों माँ ? क्यों तुम्हें इतना पूर्वाग्रह है ? क्यों तुम उनके संबंध में उदारतापूर्वक नहीं सोच सकती ?
अंबिका : मेरी वह अवस्था बीत चुकी है जब यथार्थ से आँखें मूँद कर जिया जाता है।
अंदर जाने लगती है। मल्लिका उठ कर खड़ी हो जाती है।
मल्लिका : और तुम्हारी यथार्थ दृष्टि केवल दोष ही दोष देखती है ?
अंबिका मुड़ कर पल भर उसे देखती रहती है।
अंबिका : जहाँ दोष है, वहाँ अवश्य वह दोष देखती है।
मल्लिका : उनमें तुम्हें क्या दोष दिखाई देता है ?
अंबिका : वह व्यक्ति आत्म-सीमित है। संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है।
मल्लिका : इसीलिए कि वे मातुल की गौएँ न हाँक कर बादलों में खो रहते हैं ?
अंबिका : मुझे मातुल से और उसकी गौओं से प्रयोजन नहीं है। मैं केवल अपने घर को देख कर कहती हूँ।
मल्लिका : बैठ जाओ, माँ !
अंबिका को हाथ से पकड़ कर झरोखे के पास आसन पर ले जाती है।
मैं तुम्हारी बात समझना चाहती हूँ।
अंबिका : मैं भी चाहती हूँ तुम आज समझ लो।…तुम कहती हो तुम्हारा उससे भावना का संबंध है। वह भावना क्या है ?
मल्लिका : मैं उसे कोई नाम नहीं देती।
अंबिका के पैरों के पास बैठ जाती है।
अंबिका : परंतु लोग उसे नाम देते हैं।…यदि वास्तव में उसका तुमसे भावना का संबंध है, तो वह क्यों तुमसे विवाह नहीं करना चाहता ?
मल्लिका : तुम उनके प्रति सदा अनुदार रही हो, माँ ! तुम जानती हो, उनका जीवन परिस्थितियों की कैसी विडंबना में बीता है। मातुल के घर में उनकी क्या दशा रही है। उस साधन-हीन और अभाव-ग्रस्त जीवन में विवाह की कल्पना ही कैसे की जा सकती थी ?
अंबिका : और अब जबकि उसका जीवन साधनहीन और अभावग्रस्त नहीं रहेगा ?
मल्लिका कुछ क्षण चुप रह कर अपने पैरों को देखती रहती है।
किसी संबंध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता है, अभाव की पूर्ति उससे बड़ा कारण बन जाती है।
मल्लिका : यह तुम्हारी नहीं, विलोम की भाषा है।
अंबिका : मैं ऐसे व्यक्ति को अच्छी तरह समझती हूँ। तुम्हारे साथ उसका इतना ही संबंध है कि तुम एक उपादान हो, जिसके आश्रय से वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता है। परंतु तुम क्या सजीव व्यक्ति नहीं हो ? तुम्हारे प्रति उनका या तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ? कल तुम्हारी माँ का शरीर नहीं रहेगा, और घर में एक समय के भोजन की व्यवस्था भी नहीं होगी, तो जो प्रश्न तुम्हारे सामने उपस्थित होगा, उसका तुम क्या उत्तर दोगी। तुम्हारी भावना उस प्रश्न का समाधान कर देगी ? फिर कह दो कि यह मेरी नहीं, विलोम की भाषा है।
मल्लिका सिर झुकाए कुछ क्षण चुप बैठी रहती है। फिर अंबिका की ओर देखती है।
मल्लिका : माँ, आज तक का जीवन किसी तरह बीता ही है। आगे का भी बीत जाएगा। आज जब उनका जीवन एक नई दिशा ग्रहण कर रहा है, मैं उनके सामने अपने स्वार्थ की घोषणा नहीं करना चाहती।
बाहर से मातुल के शब्द सुनाई देने लगते हैं।
मातुल : अंबिका !…अंबिका !…घर में हो कि नहीं ?
अंबिका और मल्लिका ड्योढ़ी की ओर देखती हैं। मातुल अस्त-व्यस्त-सा आता है।
मातुल : हो, हो, हो घर में ही हो ! मैं आज सारे ग्राम में घोषणा करने जा रहा हूँ कि मेरा इस कालिदास नामधारी जीव से कोई संबंध नहीं है।
मल्लिका : क्या हुआ है, आर्य मातुल ?
मातुल : मैंने इसे पाला-पोसा, बड़ा किया। क्या इसी दिन के लिए कि यह इस तरह कुलद्रोही बने ?
मल्लिका : परंतु उन्हें तो सुना है, राज्य की ओर से सम्मानित किया जा रहा है। उज्जयिनी से कोई आचार्य आए हैं।
मातुल : यही तो कह रहा हूँ। उज्जयिनी से कोई आचार्य आए हैं।
मल्लिका : परंतु आप तो कह रहे हैं।
मातुल : मैं ठीक कह रहा हूँ। आचार्य कल ही इसे अपने साथ उज्जयिनी ले जाना चाहते हैं।
मल्लिका : किंतु…।
मातुल : दो रथ, दो रथवाह और चार अश्वारोही उनके साथ हैं। मैं तुमसे नहीं कहता था अंबिका, कि हमारे प्रपितामह के एक दौहित्र का पुत्र गुप्त राज्य की ओर से शकों से युद्ध कर चुका है ?
अंबिका : तुम अपने भागिनेय की बात कर रहे थे।
मातुल : उसी की बात कर रहा हूँ, अंबिका ! तुम समझो कि एक तरह से राज्य की ओर से हमारे वंश का सम्मान किया जा रहा है। और वे वंशावतंस कहते हैं, ‘मुझे यह सम्मान नहीं चाहिए…।’
मल्लिका सहसा उठ कर खड़ी हो जाती है।
‘मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ।’
उत्तेजना में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलने लगता है। मल्लिका कुछ क्षण विस्मृत-सी खड़ी रहती है।
मल्लिका : वे राजकीय सम्मान को स्वीकार नहीं करना चाहते ?
मातुल : मेरी समझ में नहीं आता कि इसमें क्रय-विक्रय की क्या बात है। सम्मान मिलता है, ग्रहण करो। नहीं, कविता का मूल्य ही क्या है ?
मल्लिका : कविता का कुछ मूल्य है आर्य मातुल, तभी तो सम्मान का भी मूल्य है।…मैं समझती हूँ कि उनके हृदय में यह सम्मान कहाँ चुभता है।
अंबिका कुछ सोचती-सी अपने अंशुक को उँगलियों में मसलने लगती है।
अंबिका : मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ मातुल, कि वह उज्जयिनी अवश्य जाएगा।
मातुल उसी तरह टहलता रहता है।
मातुल : अवश्य जाएगा ! वे लोग इसके अनुचर हैं जो अभिस्तुति कर के इसे ले जाएँगे !
अंबिका : सम्मान प्राप्त होने पर सम्मान के प्रति प्रकट की गई उदासीनता व्यक्ति के महत्त्व को बढ़ा देती है। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि तुम्हारा भागिनेय लोकनीति में भी निष्णात है।
मातुल सहसा रुक जाता है।
मातुल : यह लोकनीति है, तो मैं कहूँगा कि लोकनीति और मूर्खनीति दोनों का एक ही अर्थ है।
फिर टहलने लगता है।
जो व्यक्ति कुछ देता है, धन हो या सम्मान हो, वह अपना मन बदल भी सकता है और मन बदल गया तो बदल गया।
फिर रुक जाता है।
तुम सोचो कि सम्राट रुष्ट भी तो हो सकते हैं कि एक साधारण कवि ने उनका सम्मान स्वीकार नहीं किया।
निक्षेप बाहर ले आता है।
निक्षेप : मातुल, आप अभी तक यहाँ हैं, और आचार्य आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मातुल : और तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? मैंने तुमसे नहीं कहा था कि जब तक मैं लौट कर न आऊँ, तुम आचार्य के पास रहना ?
निक्षेप : परंतु यह भी तो कहा था कि आचार्य विश्राम कर चुकें तो तुरंत आपको सूचना दे दूँ।
मातुल : यह भी कहा था। किंतु वह भी तो कहा था। यह कहा तुम्हारी समझ में आ गया, वह नहीं आया ?
निक्षेप : किंतु मातुल…।
मातुल : किंतु क्या ? मातुल मूर्ख है ? बताओ तुम मुझे मूर्ख समझते हो ?
निक्षेप : नहीं मातुल…।
मातुल : मैं मूर्ख नहीं, तो निश्चय ही तुम मूर्ख हो।…आचार्य ने क्या कहा है ?
निक्षेप : उन्होंने कहा है कि वे आपके साथ इस सारे ग्राम-प्रदेश में घूमना चाहते हैं…
मातुल के मुख पर गर्व की रेखाएँ प्रकट होती हैं।
…जिस प्रदेश ने कालिदास की कविता को जन्म दिया है।
मातुल के मुख की रेखाएँ वितृष्णा की रेखाओं में बदल जाती हैं।
मातुल : कालिदास की कविता !
फिर टहलने लगता है।
न जाने इतने बड़े आचार्य को इसकी कविता में क्या विशेषता दिखाई देती है !
रुक कर अंबिका की ओर देखता है।
इस व्यक्ति को सामान्य लोक-व्यवहार तक का तो ज्ञान नहीं, और तुम लोकनीति की बात कहती हो।…आप एक हरिणशावक को गोदी में लिए घर की ओर आ रहे थे। सौभाग्यवश मैंने बाहर ही देख लिया। मैंने प्रार्थना की कि कविकुलगुरु, यह समय इस रूप में घर में जाने का नहीं है। उज्जयिनी से एक बहुत बड़े आचार्य आए हैं। आप सुनते ही लौट पड़े। जैसे रास्ते में साँप देख लिया हो।
मल्लिका अंबिका के पास आसन पर बैठ जाती है। मातुल फिर टहलने लगता है।
अंबिका : मल्लिका, मातुल के लिए अंदर से आसान ला दो।
मल्लिका उठने लगती है , परंतु मातुल उसे रोक देता है।
मातुल : नहीं, मुझे आसन नहीं चाहिए। आचार्य मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
निक्षेप अंबिका की ओर देख कर मुस्कराता है। मातुल कोने तक जा कर लौटता है।
मैंने कहा, ‘कविवर्य, आचार्य आपको साथ उज्जयिनी ले जाने के लिए आए हैं। राज्य की ओर से आपका सम्मान होगा।’
रुक जाता है।
सुन कर रुके। रुक कर जलते अंगारे की-सी दृष्टि से मुझे देखा।-‘मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ।’-ऐसे कहा जैसे राजकीय मुद्राएँ आपके विरह में घुली जा रही हों, और चल दिए।…मेरे लिए धर्म-संकट खड़ा हो गया कि अनुनय करता हुआ आपके पीछे-पीछे जाऊँ, या अभ्यागतों को देखूँ। अब इस निक्षेप से आचार्य के पास बैठने को कह कर आया था, और यह धुरीहीन चक्र की तरह मेरे पीछे-पीछे चला आया है।
निक्षेप : किंतु मातुल, मैं तो समाचार देने आया था कि…।
मातुल : और मैं समाचार के लिए तुमसे धन्यवाद कहता हूँ। बहुत अच्छा किया ! अभ्यागत वहाँ बैठे हैं और आप समाचार देने यहाँ चले आए हैं !…अब इतना कीजिए कि वे कविकुल-शिरोमणि जहाँ भी हों, उन्हें ढूँढ़ कर ले आइए।
बाहर की ओर चल देता है।
मेरा कर्तव्य कहता है, जैसे भी हो उसे आचार्य के सामने प्रस्तुत करूँ।…और मन कहता है कि उसे जहाँ देखूँ वहीं चोटी से पकड़ कर…।
चला जाता है।
निक्षेप : मातुल का तीसरा नेत्र हर समय खुला रहता है।
मल्लिका : परंतु कालिदास इस समय हैं कहाँ ?
निक्षेप : कालिदास इस समय जगदंबा के मंदिर में हैं।
मल्लिका : आपने उन्हें देखा है ?
निक्षेप : देखा है।
मल्लिका : परंतु आपने मातुल से नहीं कहा ?
निक्षेप : मैं नहीं चाहता था कि मातुल इस समय वहाँ जाएँ ?
मल्लिका : क्यों ? क्या आप भी नहीं चाहते कि कालिदास… ?
निक्षेप : मैं चाहता हूँ कि कालिदास उज्जयिनी अवश्य जाएँ। इसीलिए मैंने मातुल का इस समय उनके पास जाना उचित नहीं समझा।…मातुल को अपने मुँह के शब्द सुनने में ऐसा रस प्राप्त होता है कि वे बोलते ही जाते हैं, परिस्थिति को समझना नहीं चाहते।…कालिदास हठ कर रहे हैं कि जब तक उज्जयिनी से आए अतिथि लौट नहीं जाते, वे जगदंबा के मंदिर में ही रहेंगे, घर नहीं जाएँगे।
अंबिका : कैसी विचक्षणता है !
निक्षेप : विचक्षणता ?
अंबिका : विचक्षणता ही तो है।
निक्षेप : इसमें विचक्षणता क्या है, अंबिका !
अंबिका तीखी दृष्टि से निक्षेप को देखती है।
अंबिका : राज्य कवि का सम्मान करना चाहता है। कवि सम्मान के प्रति उदासीन जगदंबा के मंदिर में साधनानिरत है। राज्य के प्रतिनिधि मंदिर में आ कर कवि की अभ्यर्थना करते हैं। कवि धीरे-धीरे आँखें खोलता है।…इतना बड़ा नाटक करना विचक्षणता नहीं है ?
निक्षेप : कालिदास नाटक नहीं कर रहे, अंबिका ! मुझे विश्वास है कि उन्हें राजकीय सम्मान का मोह नहीं है। वे सचमुच इस पर्वत-भूमि को छोड़ कर नहीं जाना चाहते।
अंबिका अपने स्थान से उठ कर उस ओर जाती है जिधर बरतन आदि पड़े हैं।
अंबिका : नहीं चाहता !…हूँ !
एक थाली ला कर कुंभ से उसमें चावल निकालने लगती है।
निक्षेप : मातुल का या किसी का भी आग्रह उनका हठ नहीं छुड़ा सकता।
मल्लिका को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखता है। मल्लिका की आँखें झुक जाती हैं।
केवल एक व्यक्ति है , जिसके अनुरोध से संभव है वे यह हठ छोड़ दें।
अंबिका निक्षेप की अर्थपूर्ण दृष्टि को और फिर मल्लिका को देखती है।
अंबिका : हमारे घर में किसी को उसके हठ छोड़ने या न छोड़ने से कोई प्रयोजन नहीं है।
थाली लिए चूल्हे के निकट चली जाती है और उन दोनों की ओर पीठ किए अपने को व्यस्त रखने का प्रयत्न करती है।
निक्षेप : कालिदास अपनी भावुकता में भूल रहे हैं कि इस अवसर का तिरस्कार कर के वे बहुत कुछ खो बैठेंगे। योग्यता एक-चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। कालिदास को राजधानी अवश्य जाना चाहिए।
अंबिका व्यस्त रहने का प्रयत्न करती हुई भी व्यस्त नहीं हो पाती।
अंबिका : तो उसमें बाधा क्या है ?
निक्षेप : मैंने अनुभव किया है कि उनके हठ के मूल में कहीं गहरी कटुता की रेखा है।
मल्लिका : मैं जानती हूँ, वह रेखा कहाँ है।…कुछ समय पहले एक राजपुरुष से उनका सामना हो चुका है।
निक्षेप : उस कटुता को केवल तुम्हीं दूर कर सकती हो, मल्लिका ! अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। कालिदास यहाँ से नहीं जाते हैं, तो राज्य की कोई हानि नहीं होगी। राजकवि का आसन रिक्त नहीं रहेगा। परंतु कालिदास जो आज हैं, जीवन-भर वही रहेंगे – एक स्थानीय कवि ! जो लोग आज ‘ऋतुसंहार’ की प्रशंसा कर रहे हैं, वे भी कुछ दिनों में उन्हें भूल जाएँगे।
मल्लिका अपने में खोई-सी उठ खड़ी होती है।
मल्लिका : नहीं, उन्हें इस सम्मान का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। यह सम्मान उनके व्यक्तित्व का है। उन्हें अपने व्यक्तित्व को उसके अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए। चलिए, मैं आपके साथ जगदंबा के मंदिर में चलती हूँ।
अंबिका सहसा खड़ी हो जाती है।
अंबिका : मल्लिका !
मल्लिका स्थिर दृष्टि से अंबिका को देखती है।
मल्लिका : माँ !
अंबिका : मुझे एक बाहर के व्यक्ति के सामने कहना होगा कि मैं इस समय तुम्हारे वहाँ जाने के पक्ष में नहीं हूँ ?
निक्षेप : निक्षेप बाहर का व्यक्ति नहीं है, अंबिका !
मल्लिका : यह एक महत्त्वपूर्ण क्षण है, माँ ! मुझे इस समय अवश्य जाना चाहिए। आइए, आर्य निक्षेप !
बिना अंबिका की ओर देखे बाहर को चल देती है। अंबिका की आँखों में क्रोध की लहर उठती है , जो पराजय के भाव में बदल जाती है। निक्षेप अंबिका के भाव को लक्ष्य करता क्षण भर रुका रहता है।
निक्षेप : क्षमा चाहता हूँ, अंबिका !
मल्लिका के पीछे चला जाता है। अंबिका कुछ क्षण आँखें मूँदे खड़ी रहती है। फिर घर की वस्तुओं को एक-एक कर के देखती है ,और जैसे टूटी-सी , चौकी पर बैठ कर थाली के चावलों को मसलने लगती है। आँखों से आँसू उमड़ आते हैं , जिन्हें वह आँचल में पोंछ लेती है। प्रकाश कम हो जाता है। अंबिका के कंठ से रुँधा-सा स्वर निकलता है :
अंबिका : भावना !…ओह !
आँचल में मुँह छिपा लेती है। प्रकाश कुछ और क्षीण हो जाता है। तभी ड्योढ़ी के अँधेरे में अग्निकाष्ठ की लौ चमक उठती है। विलोम अग्निकाष्ठ हाथ में लिए बाहर से आता है। अंबिका को इस तरह बैठे देख कर क्षण-भर रुका रहता है। फिर पास चला आता है।
विलोम : घिरे हुए मेघों ने आज असमय अंधकार कर दिया है अंबिका, या तुम्हें समय का ज्ञान नहीं रहा ?
अंबिका आँचल से मुँह उठाती है। अग्निकाष्ठ के प्रकाश में उसके मुख की रेखाएँ गहरी और आँखें धँसी-सी दिखाई देती हैं।
आश्चर्य है, तुमने दीपक नहीं जलाया !
अंबिका : विलोम !….तुम यहाँ क्यों आए हो ?
विलोम बाईं ओर के दीपक के निकट चला जाता है।
विलोम : दीपक जला दूँ ?
अग्निकाष्ठ से छू कर दीपक जला देता है।
विलोम का आना ऐसे आश्चर्य का विषय नहीं है।
जा कर सामने के दीपक जलाने लगता है। अंबिका उठ खड़ी होती है।
अंबिका : चले जाओ विलोम ! तुम जानते हो कि तुम्हारा यहाँ आना…
विलोम : मल्लिका को सह्य नहीं है।
दीपक जला कर अंबिका की ओर देखता है।
जानता हूँ, अंबिका ! मल्लिका बहुत भोली है। वह लोक और जीवन के संबंध में कुछ नहीं जानती।
दीवार में बने आधार में अग्निकाष्ठ तिरछा लगा देता है।
वह नहीं चाहती कि मैं इस घर में आऊँ, क्योंकि कालिदास नहीं चाहता।
घूम कर अंबिका के पास आता है।
और कालिदास क्यों नहीं चाहता ? क्योंकि मेरी आँखों में उसे अपने हृदय का सत्य झाँकता दिखाई देता है। उसे उलझन होती है।…किंतु तुम तो जानती हो अंबिका, मेरा एकमात्र दोष यह है कि मैं जो अनुभव करता हूँ, स्पष्ट कह देता हूँ।
अंबिका : मैं इस समय तुम्हारे दोष-अदोष का विवेचन नहीं करना चाहती।
विलोम : देख रहा हूँ इस समय तुम बहुत दुखी हो।…और तुम दुखी कब नहीं रही, अंबिका ? तुम्हारा तो जीवन ही पीड़ा का इतिहास है। पहले से कहीं दुबली हो गई हो ?…सुना है कालिदास उज्जयिनी जा रहा है।
अंबिका : मैं नहीं जानती।
विलोम जैसे उसकी बात न सुन कर झरोखे के पास चला जाता है।
विलोम : राज्य की ओर से उसका सम्मान होगा ! कालिदास राजकवि के रूप में उज्जयिनी में रहेगा। मैं समझता हूँ उसके जाने से पहले ही उसका और मल्लिका का विवाह हो जाना चाहिए। इस संबंध में तुमने सोचा तो होगा ?
अंबिका : मैं इस समय कुछ भी सोचना नहीं चाहती।
विलोम : तुम, मल्लिका की माँ, इस विषय में सोचना नहीं चाहतीं ? आश्चर्य है !
अंबिका : मैंने तुमसे कहा है विलोम, तुम चले जाओ।
विलोम : कालिदास उज्जयिनी चला जाएगा ! और मल्लिका, जिसका नाम उसके कारण सारे प्रांतर में अपवाद का विषय बना है, पीछे यहाँ पड़ी रहेगी ? क्यों, अंबिका ?
अंबिका कुछ न कह कर आसन पर बैठ जाती है। विलोम घूम कर उसके सामने आ जाता है।
क्यों ? तुमने इतने वर्ष सारी पीड़ा क्या इसी दिन के लिए सही है ? दूर से देखनेवाला भी जान सकता है, इन वर्षों में तुम्हारे साथ क्या-क्या बीता है ! समय ने तुम्हारे मन, शरीर और आत्मा की इकाई को तोड़ कर रख दिया है। तुमने तिल-तिल कर के अपने को गलाया है कि मल्लिका को किसी अभाव का अनुभव न हो। और आज, जबकि उसके लिए जीवन भर के अभाव का प्रश्न सामने है, तुम कुछ सोचना नहीं चाहती ?
अंबिका : तुम यह सब कह कर मेरा दु:ख कम नहीं कर रहे, विलोम ! मैं अनुरोध करती हूँ कि तुम इस समय मुझे अकेली रहने दो।
विलोम : मैं इस समय अपना तुम्हारे पास होना बहुत आवश्यक समझता हूँ, अंबिका ! मैं ये सब बातें तुमसे नहीं, उससे कहने के लिए आया हूँ। आशा कर रहा हूँ कि वह मल्लिका के साथ अभी यहाँ आएगा। मैंने मल्लिका को जगदंबा के मंदिर की ओर जाते देखा है। मैं यहीं उसकी प्रतीक्षा करना चाहता हूँ।
ड्योढ़ी से कालिदास और उसके पीछे मल्लिका आती है।
कालिदास : अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी, विलोम !
विलोम को देख कर मल्लिका की आँखों में क्रोध और वितृष्णा का भाव उमड़ आता है , और वह झरोखे की ओर चली जाती है। कालिदास विलोम के पास आ जाता है।
मैं जानता हूँ कि तुम कहाँ, किस समय और क्यों मेरे साक्षात्कार के लिए उत्सुक होते हो।…कहो, आजकल किस नए छंद का अभ्यास कर रहे हो ?
विलोम : छंदों का अभ्यास मेरी वृत्ति नहीं है।
कालिदास : मैं जानता हूँ तुम्हारी वृत्ति दूसरी है।
क्षण-भर उसकी आँखों में देखता रहता है।
उस वृत्ति ने संभवत: छंदों का अभ्यास सर्वथा छुड़ा दिया है।
विलोम : आज नि:संदेह तुम छंदों के अभ्यास पर गर्व कर सकते हो।
अग्निकाष्ठ के पास जा कर उसे सहलाने लगता है। प्रकाश उसके मुख पर पड़ता है।
सुना है, राजधानी से निमंत्रण आया है।
कालिदास : सुना मैंने भी है। तुम्हें दुख हुआ ?
विलोम : दुख ? हाँ-हाँ, बहुत। एक मित्र के बिछुड़ने का किसे दुख नहीं होता ?
…कल ब्राह्म मुहूर्त में ही चले जाओगे ?
कालिदास : मैं नहीं जानता।
विलोम : मैं जानता हूँ। आचार्य कल ब्राह्म मुहूर्त में ही लौट जाना चाहते हैं। राजधानी के वैभव में जा कर ग्राम-प्रांतर को भूल तो नहीं जाओगे ?
एक दृष्टि मल्लिका पर डाल कर फिर कालिदास की ओर देखता है।
सुना है, वहाँ जा कर व्यक्ति बहुत व्यस्त हो जाता है। वहाँ के जीवन में कई तरह के आकर्षण हैं – रंगशालाएँ, मदिरालय और तरह-तरह की विलास-भूमियाँ !
मल्लिका के भाव में बहुत कठोरता आ जाती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, यह समय और स्थान इन बातों के लिए नहीं है। मैं इस समय आपको यहाँ देखने की आशा नहीं कर रही थी।
विलोम : मैं जानता हूँ तुम इस समय मुझे यहाँ देख कर प्रसन्न नहीं हो। परंतु मैं अंबिका से मिलने आया था। बहुत दिनों से भेंट नहीं हुई थी। यह कोई ऐसी अप्रत्याशित बात नहीं है।
कालिदास : विलोम का कुछ भी करना अप्रत्याशित नहीं है। हाँ, कई कुछ न करना अप्रत्याशित हो सकता है।
विलोम : यह वास्तव में प्रसन्नता का विषय है कालिदास, कि हम दोनों एक-दूसरे को इतनी अच्छी तरह समझते हैं। नि:संदेह मेरे स्वभाव में ऐसा कुछ नहीं है, जो तुमसे छिपा हो।
क्षण भर कालिदास की आँखों में देखता रहता है।
विलोम क्या है ? एक असफल कालिदास। और कालिदास ? एक सफल विलोम। हम कहीं एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।
अग्निकाष्ठ के पास से हट कर कालिदास के निकट आ जाता है।
कालिदास : नि:संदेह। सभी विपरीत एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।
विलोम : अच्छा है, तुम इस सत्य को स्वीकार करते हो। मैं उस निकटता के अधिकार से तुमसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ ?…संभव है फिर कभी तुमसे बात करने का अवसर ही प्राप्त न हो। एक दिन का व्यवधान तुम्हें हमसे बहुत दूर कर देगा न !
कालिदास : वर्षों का व्यवधान भी विपरीत को विपरीत से दूर नहीं करता।…मैं तुम्हारा प्रश्न सुनने के लिए उत्सुक हूँ।
विलोम बहुत पास आ कर उसके कंधे पर हाथ रख देता है।
विलोम : मैं जानना चाहता हूँ कि तुम अभी तक वही कालिदास हो न ?
अर्थपूर्ण दृष्टि से अंबिका की ओर देख लेता है।
कालिदास : मैं तुम्हारा अभिप्राय नहीं समझ सका।
उसका हाथ अपने कंधे से हटा देता है।
विलोम : मेरा अभिप्राय है कि तुम अभी तक वही व्यक्ति हो न जो कल तक थे ?
मल्लिका झरोखे के पास से उधर को बढ़ आती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, मैं इस प्रकार की अनर्गलता क्षम्य नहीं समझती।
विलोम : अनर्गलता ?
अंबिका के निकट आ जाता है। कालिदास दो-एक पग दूसरी ओर चला जाता है।
इसमें अनर्गलता क्या है ? मैं बहुत सार्थक प्रश्न पूछ रहा हूँ। क्यों कालिदास ? मेरा प्रश्न सार्थक नहीं है ?…क्यों अंबिका ?
अंबिका अव्यवस्थित भाव से उठ खड़ी होती है।
अंबिका : मैं इस संबंध में कुछ नहीं जानती, और न ही जानना चाहती हूँ।
अंदर की ओर चल देती है।
विलोम : ठहरो, अंबिका !
अंबिका रुक कर उसकी ओर देखती है।
आज तक ग्राम-प्रांतर में कालिदास के साथ मल्लिका के संबंध को ले कर बहुत कुछ कहा जाता रहा है।
मल्लिका एक पग और आगे आ जाती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, आप…!
विलोम : उसे दृष्टि में रखते हुए क्या यह उचित नहीं कि कालिदास यह स्पष्ट बता दे कि उसे उज्जयिनी अकेले ही जाना है या…
मल्लिका : कालिदास आपके किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं है।
विलोम : मैं कब कहता हूँ कि बाध्य है ? परंतु संभव है कालिदास का अंत:करण उसे उत्तर देने के लिए बाध्य करे। क्यों कालिदास ?
कालिदास मुड़ पड़ता है। दोनों एक-दूसरे के सामने आ जाते हैं।
कालिदास : मैं तुम्हारी प्रशंसा करने के लिए अवश्य बाध्य हूँ। तुम दूसरों के घर में ही नहीं, उनके जीवन में ही अनाधिकार प्रवेश कर जाते हो।
विेलाम : अनधिकार प्रवेश…? मैं ? क्यों अंबिका, तुम्हें कालिदास की यह बात कहाँ तक संगत प्रतीत होती है कि मैं, विलोम, दूसरों के जीवन में अनाधिकार प्रवेश कर जाता हूँ ?
अंबिका : मैं कह चुकी हूँ, मुझे इस संबंध में कुछ भी नहीं कहना है।
अंदर चली जाती है।
विलोम : बस, चल ही दीं…? अच्छा कालिदास, तुम्हीं बताओ, तुम्हें अपनी यह बात कहाँ तक संगत प्रतीत होती है ? मैंने किसके जीवन में अनाधिकार प्रवेश किया है ? चलो, ग्राम-प्रांतर में चल कर किसी से भी पूछ लें…।
विदग्ध दृष्टि से उसे देखता है। फिर अग्निकाष्ठ के पास जा कर उसे आधार से हाथ में ले लेता है।
तो तुम अपने अंत:करण से भी मेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हो ! संभवत: प्रश्न ही ऐसा है…!
कालिदास : तुम कुछ भी अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र हो। मैं इतना ही जानता हूँ कि मुझे ग्राम-प्रांतर छोड़ कर उज्जयिनी जाने का तनिक मोह नही है।
विलोम उल्मुक कालिदास के मुख के निकट ले आता है।
विलोम : नि:संदेह ! तुम्हें ऐसा मोह क्यों होगा ? साधारण व्यक्ति को हो सकता है, तुम्हें क्यों होगा ? परंतु मैं केवल इतना जानना चाहता था कि यदि ऐसा हो – क्षण भर के लिए स्वीकार कर लिया जाए कि तुम जाने का निश्चय कर लो – तो उस स्थिति में क्या यह उचित नहीं कि…
मल्लिका उसके और कालिदास के बीच में आ जाती है। अग्निकाष्ठ का प्रकाश उसके मुँह पर पड़ने लगता है।
मल्लिका : आर्य विलोम, आज अपनी सीमा से आगे जा कर बात कर रहे हैं। मैं बच्ची नहीं हूँ, अपना भला-बुरा सब समझती हूँ।…आप संभवत: यह अनुभव नहीं कर रहे कि आप यहाँ इस समय एक अनचाहे अतिथि के रूप में उपस्थित हैं।
विलोम : यह अनुभव करने की मैंने आवश्यकता नहीं समझी। तुम मुझसे घृणा करती हो, मैं जानता हूँ। परंतु मैं तुमसे घृणा नहीं करता। मेरे यहाँ होने के लिए इतना ही पर्याप्त है।
अग्निकाष्ठ का प्रकाश फिर कालिदास के चेहरे पर डालता है।
और एक बात कालिदास से भी करना चाहता था।
अर्थपूर्ण दृष्टि से कालिदस को देख कर फिर मल्लिका की ओर देखता है।
तुम कालिदास के बहुत निकट हो, परंतु मैं कालिदास को तुमसे अधिक जानता हूँ।
पुन: एक-एक कर के दोनों की ओर देखता है और ड्योढ़ी की ओर चल देता है। ड्योढ़ी के पास से मुड़ कर फिर कालिदास की ओर देखता है।
तुम्हारी यात्रा शुभ हो, कालिदास ! तुम जानते हो, विलोम तुम्हारा ही शुभचिंतक है।
कालिदास : यह मुझसे अधिक कौन जान सकता है ?
विलोम के कंठ से तिरस्कारपूर्ण स्वर निकलता है और वह मल्लिका की ओर देखता है।
विलोम : अनचाहा अतिथि संभवत: फिर भी कभी आ पहुँचे। तब के लिए भी क्षमा चाहते हुए…।
व्यंग्य के साथ मुस्करा कर चला जाता है। कालिदास क्षण-भर मल्लिका की ओर देखता रहता है। फिर झरोखे के पास चला जाता है।
मल्लिका : फिर उदास हो गए ?
कालिदास झरोखे से बाहर देखता रहता है।
देखो, तुम मुझे वचन दे चुके हो।
कालिदास लौट कर उसके पास आ जाता है।
कालिदास : फिर एक बार सोचो, मल्लिका ! प्रश्न सम्मान और राज्याश्रय स्वीकार करने का ही नहीं है। उससे कहीं बड़ा एक प्रश्न मेरे सामने है।
मल्लिका : और वह प्रश्न मैं हूँ…हूँ न ?
उसे बाँहों से पकड़ कर आसन पर बिठा देती है।
यहाँ बैठो। तुम मुझे जानते हो। हो न ?
कालिदास उसकी ओर देखता रहता है।
तुम समझते हो कि तुम इस अवसर को ठुकरा कर यहाँ रह जाओगे, तो मुझे सुख होगा ?
उमड़ते आँसुओं को दबाने के लिए आँखें झपकती और ऊपर की ओर देखने लगती है।
मैं जानती हूँ कि तुम्हारे चले जाने से मेरे अंतर को एक रिक्तता छा लेगी। बाहर भी संभवत: बहुत सूना प्रतीत होगा। फिर भी मैं अपने साथ छल नहीं कर रही।
मुस्कराने का प्रयत्न करती है।
मैं हृदय से कहती हूँ तुम्हें जाना चाहिए।
कालिदास : चाहता हूँ तुम इस समय अपनी आँखें देख सकती।
मल्लिका : मेरी आँखें इसलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नहीं समझ रहे।
उसके पैरों के पास बैठ कर उसके घुटनों पर कुहनियाँ रख देती है।
तुम यहाँ से जा कर भी मुझसे दूर हो सकते हो…? यहाँ ग्राम-प्रांतर में रह कर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर कहाँ मिलेगा ? यहाँ लोग तुम्हें समझ नहीं पाते। वे सामान्य की कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं।
कुहनियों पर ठोड़ी भी रख लेती है।
विश्वास करते हो न कि मैं तुम्हें जानती हूँ ? जानती हूँ कि कोई भी रेखा तुम्हें घेर ले, तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हें घेरना नहीं चाहती। इसलिए कहती हूँ, जाओ।
कालिदास : तुम पूरी तरह नहीं समझ रहीं, मल्लिका। प्रश्न तुम्हारे घेरने का नहीं है।
मल्लिका शब्दों की चुभन अनुभव कर के भी अपनी मुद्रा स्वाभाविक बनाए रखने का प्रयत्न करती है। कालिदास जैसे सोचता-सा उठ खड़ा होता है और टहलने लगता है।
मैं अनुभव करता हूँ कि यह ग्राम-प्रांतर मेरी वास्तविक भूमि है। मैं कई सूत्रों से इस भूमि से जुड़ा हूँ। उन सूत्रों में तुम हो, यह आकाश और ये मेघ हैं, यहाँ की हरियाली है, हरिणों के बच्चे हैं, पशुपाल हैं।
रुक कर मल्लिका की ओर देखता है।
यहाँ से जा कर मैं अपनी भूमि से उखड़ जाऊँगा।
मल्लिका आसन पर कुहनी रखे उससे टेक लगा लेती है।
मल्लिका : यह क्यों नहीं सोचते कि नई भूमि तुम्हें यहाँ से अधिक संपन्न और उर्वरा मिलेगी। इस भूमि से तुम जो कुछ ग्रहण कर सकते थे, कर चुके हो। तुम्हें आज नई भूमि की आवश्यकता है, जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।
कालिदास : नई भूमि सुखा भी तो सकती है !
फिर टहलने लगता है।
मल्लिका : कोई भूमि ऐसी नहीं जिसके अंतर में कोमलता न हो। तुम्हारी प्रतिभा उस कोमलता का स्पर्श अवश्य पा लेगी।
कालिदास : और उस जीवन की अपनी अपेक्षाएँ भी होंगी…
मल्लिका उठ कर उसके पास आ जाती है और उसके हाथ अपने हाथों में ले लेती है।
मल्लिका : यह क्यों आवश्यक है कि तुम उन अपेक्षाओं का पालन करो ? तुम दूसरों के लिए नई अपेक्षाओं की सृष्टि कर सकते हो।
कालिदास : फिर भी कई-कई आशंकाएँ उठती हैं। मुझे हृदय में उत्साह का अनुभव नहीं होता।
मल्लिका : मेरी ओर देखो।
कालिदास कुछ क्षण उसकी आँखों में देखता रहता है।
अब भी उत्साह का अनुभव नहीं होता…? विश्वास करो तुम यहाँ से जा कर भी यहाँ से अलग नहीं होओगे। यहाँ की वायु, यहाँ के मेघ और यहाँ के हरिण, इन सबको तुम साथ ले जाओगे…। और मैं भी तुमसे दूर नहीं होऊँगी। जब भी तुम्हारे निकट होना चाहूँगी, पर्वत-शिखर पर चली जाऊँगी और उड़ कर आते मेघों में घिर जाया करूँगी।
बिजली कौंधती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है। कालिदास उसके हाथ पकड़े रहता है। मल्लिका पलकें झपका कर अपने आँसू सुखाती है।
लगता है फिर वर्षा होगी। यूँ भी बहुत अँधेरा हो गया है। आचार्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
कालिदास : मुझे जाने के लिए कह रही हो ?
मल्लिका : हाँ ! देखना मैं तुम्हारे पीछे प्रसन्न रहूँगी, बहुत घूमूँगी और हर संध्या को जगदंबा के मंदिर में सूर्यास्त देखने जाया करूँगी…।
कालिदास : इसका अर्थ है तुमसे विदा लूँ।
मल्लिका : नहीं ! विदा तुम्हें नहीं दूँगी। जा रहे हो, इसलिए केवल प्रार्थना करूँगी कि तुम्हारा पथ प्रशस्त हो।
उसके हाथ छोड़ देती है।
जाओ।
कालिदास पल भर आँखें मूँदे रहता है। फिर झटके से चला जाता है। मल्लिका हाथों में मुँह छिपाए आसन पर जा बैठती है। तीव्र मेघ-गर्जन सुनाई देता है और साथ वर्षा का शब्द सुनाई देने लगता है। मल्लिका अपने को रोकने का प्रयत्न करती हुई भी सिसक उठती है। अंबिका अंदर से आ कर उसके सिर पर हाथ रखती है और उसका मुँह ऊपर उठाती है।
अंबिका : मल्लिका !
मल्लिका आसन से उठ खड़ी होती है और झरोखे के पास जा कर उससे सिर टिका लेती है।
अंबिका : तुम स्वस्थ नहीं हो मल्लिका, चलो अंदर चल कर विश्राम कर लो।
मल्लिका अपनी सिसकियाँ दबाने का प्रयत्न करती हुई उसी तरह खड़ी रहती है।
मल्लिका : मुझे यहीं रहने दो, माँ ! मैं अस्वस्थ नहीं हूँ। देखो माँ, चारों ओर कितने गहरे मेघ घिरे हैं ! कल ये मेघ उज्जयिनी की ओर उड़ जाएँगे…!
पुन: हाथों में मुँह छिपा कर सिसक उठती है। अंबिका पास जा कर उसे अपने से सटा लेती है।
अंबिका : रोओ नहीं, मल्लिका !
मल्लिका : मैं रो नहीं रही हूँ, माँ ! मेरी आँखों में जो बरस रहा है, यह दुख नहीं है। यह सुख है माँ, सुख…!
अंबिका के वक्ष में मुँह छिपा लेती है। पुन: मेघ-गर्जन सुनाई देता है और वर्षा का शब्द ऊँचा हो जाता है।

आषाढ़ का एक दिन-अंक 2

कुछ वर्षों के अनंतर
वही प्रकोष्ठ।
प्रकोष्ठ की स्थिति में पहले से कहीं अंतर आ गया है। लिपाई कई स्थानों से उखड़ रही है। गेरू से बने स्वस्तिक, शंख और कमल अब बुझे-बुझे-से हैं। चूल्हे के पास पहले से बहुत कम बरतन हैं। कुंभ केवल दो हैं और उन पर ऊपर तक काई जमी है। आसन पर कुछ भोजपत्र बिखरे हैं, कुछ एक रेशमी वस्त्र में बँधे हैं। आसन के निकट एक टूटा मोढ़ा है, जिस पर भोजपत्र सी कर बनाया एक ग्रंथ रखा है।
चूल्हे के निकट कोने में रस्सी बँधी है जिस पर कुछ वस्त्र सूखने के लिए फैलाए गए हैं। अधिकांश वस्त्र फटे हैं और उन पर जगह-जगह टाँकियाँ लगी हैं।
एक टूटा मोढ़ा ड्योढ़ी के द्वार के पास रखा है। चौकी एक ही है जिस पर बैठी मल्लिका खरल में औषध पीस रही है। अंदर बिछे तल्प का कोना उसी तरह दिखाई देता है। अंबिका तल्प पर लेटी है। बीच-बीच में वह करवट बदल लेती है। निक्षेप बाहर से आता है। मल्लिका अपना अंशुक ठीक करती है।
निक्षेप : अब कैसा है अंबिका का स्वास्थ्य ?
मल्लिका : वैसे ही ज्वर आता है अभी।
निक्षेप : पहले से कुछ भी अंतर नहीं पड़ा ?
मल्लिका : लगता तो नहीं।
निक्षेप : दो वर्ष से निरंतर एक-सा ज्वर !
मल्लिका ठंडी साँस भर कर पीसी हुई औषध पत्थर से कटोरे में डालने लगती है। निक्षेप मोढ़ा खींच कर उसके पास आ बैठता है।
वास्तव में अंबिका बहुत चिंता करती है।
मल्लिका : औषध भी ठीक से नहीं खाती।
औषध में दूध और शहद मिला कर हिलाने लगती है। निक्षेप अपनी उँगलियाँ उलझाए उसे देखता रहता है।
निक्षेप : तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है ?
मल्लिका : ठीक है।
निक्षेप : दुबली होती जा रही हो।…बहुत दिनों से राजधानी की ओर से कोई व्यक्ति नहीं आया।
मल्लिका आँखें बचाती हुई अधिक व्यक्त भाव से औषध हिलाती रहती है।
कभी-कभी सोचता हूँ, एक बार उज्जयिनी जा कर उनसे मिल आऊँ।
मल्लिका : क्यों ?
निक्षेप : कई बातें करना चाहता हूँ। कई बार लगता है कि दोष मेरा ही है।
मल्लिका गंभीर भाव से उसकी ओर देखती है।
मल्लिका : किस बात का ?
निक्षेप लंबी साँस लेता है।
निक्षेप : बात तुम जानती हो।…मैंने आशा नहीं की थी कि उज्जयिनी जा कर कालिदास इस तरह वहाँ के हो जाएँगे।
मल्लिका : और मुझे प्रसन्नता है कि वे वहाँ रह कर इतने व्यस्त हैं। यहाँ उन्होंने केवल ‘ऋतु-संहार’ की रचना की थी। वहाँ उन्होंने कई नए काव्यों की रचना की है। दो वर्ष पहले जो व्यवसायी आए थे, उन्होंने ‘कुमारसंभव’ और ‘मेघदूत’ की प्रतियाँ मुझे ला दी थीं। बता रहे थे, उनके एक और बड़े काव्य की बहुत चर्चा है, परंतु उसकी प्रति उन्हें नहीं मिल पाई।
निक्षेप : यूँ तो सुना है, उन्होंने कुछ नाटकों की भी रचना की है जो उज्जयिनी की रंगशालाओं में खेले गए हैं। फिर भी…।
मल्लिका : फिर भी क्या ?
निक्षेप : मुझे कहते दुख होता है। उन्हीं व्यवसायियों के मुँह से और भी तो कई बातें सुनी थीं…।
मल्लिका : व्यक्ति उन्नति करता है, तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद जुड़ने लगते हैं।
निक्षेप : मैं अपवाद की बात नहीं कर रहा।
उठ कर टहलने लगता है।
सुना यह भी तो था न कि गुप्त वंश की राज-दुहिता से उनका विवाह हो गया।
मल्लिका : तो इसमें बुरा क्या है ?
निक्षेप : एक तरह से देखें, तो बुरा नहीं भी है। परंतु यहाँ रहते उनका जो आग्रह था कि जीवन भर विवाह नहीं करेंगे ?
रुक कर उसकी ओर देखता है।
उस आग्रह का क्या हुआ ? उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनके इसी आग्रह की रक्षा के लिए तुमने…?
अंबिका : उनके प्रसंग में मेरी बात कहीं नहीं आती। मैं अनेकानेक साधारण व्यक्तियों में से हूँ। वे असाधारण हैं। उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था।…सुना है राज-दुहिता बहुत विदुषी हैं।
निक्षेप : हाँ, सुना है। बहुत शास्त्र-दर्शन पढ़ी हैं। मैंने कहा है न कि एक तरह से देखें, तो इसमें कुछ बुरा नहीं है। परंतु दूसरी तरह से देखने पर बहुत ग्लानि होती है।
मल्लिका : इसके विपरीत मुझे अपने से ग्लानि होती है, कि यह, ऐसी मैं, उनकी प्रगति में बाधा भी बन सकती थी। आपके कहने से मैं उन्हें जाने के लिए प्रेरित न करती, तो कितनी बड़ी क्षति होती ?
निक्षेप : यह तो दुख है कि मेरे कहने से तुम ऐसा न करतीं, तो आज तुम्हारे जीवन का रूप यह न होता।
मल्लिका : मेरे जीवन में पहले से क्या अंतर आया है ? पहले माँ काम करती थी। अब वे अस्वस्थ हैं, मैं काम करती हूँ।
निक्षेप : बाहर से तो इतना ही अंतर लगता है।
मल्लिका : केवल इतना ही अंतर है।
औषध लिए उठ खड़ी होती है।
माँ को औषध दे दूँ, अभी आती हूँ।
अंदर चली जाती है और अंबिका को सहारे से उठा कर औषध पिलाती है। अंबिका पी कर सिर हिलाती है। निक्षेप टहलता हुआ झरोखे के पास चला जाता है। बाहर घोड़े की टापों का शब्द सुनाई देता है जो पास आ कर दूर चला जाता है। निक्षेप झरोखे से सटा देखता रहता है। अंबिका औषध पी कर लेट जाती है। मल्लिका बाहर आ जाती है, और किवाड़ के पास रुक कर अंबिका की ओर देखती है।
मल्लिका : माँ, ठंड लगती हो तो किवाड़ बंद कर दूँ ?
अंबिका सिर हिलाती है। मल्लिका किवाड़ बंद कर देती है। निक्षेप झरोखे के पास से हट आता है।
निक्षेप : लगता है आज फिर कुछ लोग बाहर से आए हैं।
मल्लिका : कौन लोग ?
निक्षेप : संभवत: राज्य के कर्मचारी हैं। दो वैसी ही आकृतियाँ मैंने देखी हैं, जैसी तब देखी थीं, जब आचार्य कालिदास को लेने आए थे।
मल्लिका थोड़ा सिहर जाती है।
मल्लिका : वैसी आकृतियाँ ?
अपने भाव को दबा कर हँसने का प्रयत्न करती है।
जानते हैं, माँ इस संबंध में क्या कहती हैं ? कहती हैं कि जब भी ये आकृतियाँ दिखाई देती हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है। कभी युद्ध, कभी महामारी !…
परंतु पिछली बार तो ऐसा कुछ नहीं हुआ।
निक्षेप : नहीं हुआ ?
मल्लिका आँखें बचाती हुई गीले वस्त्रों को देखने में व्यस्त हो जाती है।
मल्लिका : क्या हुआ ?…और जो हुआ, वह तो अच्छा ही था।
दो-एक वस्त्रों को उतार कर फिर रस्सी पर फैला देती है।
हवा में आजकल इतनी नमी रहती है, कि वस्त्र घंटों नहीं सूखते।
फिर टापों का शब्द सुनाई देता है। निक्षेप फिर झरोखे के पास चला जाता है। सहसा उसके मुँह से आश्चर्य की ध्वनि निकल पड़ती है।
निक्षेप : हैं हैं ?…नहीं ?…परंतु नहीं कैसे ?
टापों का शब्द दूर चला जाता है। निक्षेप उत्तेजित-सा झरोखे के पास से हट कर आता है।
मल्लिका : सहसा उत्तेजित क्यों हो उठे, आर्य निक्षेप ?
निक्षेप : मैंने अभी एक और आकृति को घोड़े पर जाते देखा है।
मल्लिका : तो क्या हुआ ? आपको भी माँ की तरह अनिष्ट की आशंका हो रही है ?
निक्षेप : वह एक बहुत परिचित आकृति है, मल्लिका !
मल्लिका : परिचित आकृति ?
निक्षेप : मुझे विश्वास है, वे स्वयं कालिदास हैं।
मल्लिका हाथ के वस्त्र को पकड़े स्तंभित-सी हो रहती है।
मल्लिका : कालिदास ?…यह कैसे संभव है ?
निक्षेप : मैंने अपनी आँखों से देखा है। वे घोड़ा दौड़ाते पर्वत-शिखर की ओर गए हैं। इस राजसी वेशभूषा में और कोई उन्हें न पहचान पाए, निक्षेप की आँखें पहचानने में भूल नहीं कर सकतीं।…मैं अभी जा कर देखता हूँ। राज्य-कर्मचारी भी अवश्य उन्हीं के साथ आए होंगे।
उसी उत्तेजना में चला जाता है।
मल्लिका : वे आए हैं और पर्वत-शिखर की ओर गए हैं ?
अपनी उँगली को दाँत से काटती है और पीड़ा का अनुभव होने पर यंत्र-चालित-सी झरोखे के पास चली आती है। ड्योढ़ी से रंगिणी और संगिनी अंदर आती हैं। मल्लिका आश्चर्य से उनकी ओर देखती है रंगिणी संगिनी को आगे करती है।
रंगिणी : इससे पूछ, हम अंदर आ सकती हैं ?
संगिनी उसे आगे कर के स्वयं पीछे हट जाती है।
संगिनी : तू पूछ।
मल्लिका उनके पास आ जाती है।
रंगिणी : अच्छा, मैं पूछती हूँ।…सुनो, यह तुम्हारा घर है ?
मल्लिका : हाँ हाँ। आइए…आप मेरे यहाँ आए हैं ?
रंगिणी और संगिनी अंदर आ जाती हैं और खोजती दृष्टि से इधर-उधर देखती हैं।
रंगिणी : हम विशेष रूप से किसी के यहाँ नहीं आईं। समझ लो कि यूँ ही आई हैं-ग्राम-प्रदेश में घूमती हुई।
संगिनी : हम यहाँ के घर देखना चाहती हैं।
रंगिणी : और यहाँ के जीवन का अध्ययन करना चाहती हैं।
संगिनी : पहले मैं परिचय दे दूँ। यह है रंगिणी। उज्जयिनी के नाटय केंद्र में नृत्य का अभ्यास करती है। नाटक लिखने में भी इसकी रुचि है।
रंगिणी : और यह संगिनी-उसी केंद्र में मृदंग और वीणा-वादन सीखती है। बहुत सुंदर प्रणय-गीत लिखती है। अब गद्य की ओर आ रही है। और तुम्हारा परिचय ?
मल्लिका कुछ भी उत्तर न दे कर आश्चर्य से उनकी ओर देखती रहती है।
संगिनी : तुमने अपना परिचय नहीं दिया।
मल्लिका : मेरा परिचय कुछ भी नहीं है। आइए, यहाँ आसन पर बैठिए।
संगिनी : हम बैठने के लिए नहीं, अध्ययन करने के लिए आई हैं। इस स्थान को आप लोग क्या कहते हैं ?
मल्लिका : किस स्थान को ?
रंगिणी : इसका अभिप्राय इस सारे स्थान से है जहाँ इस समय हम हैं। उज्जयिनी में हम इसे प्रकोष्ठ कहते हैं। यहाँ तुम लोग क्या कहते हो ?
मल्लिका : प्रकोष्ठ।
रंगिणी : प्रकोष्ठ को तुम लोग भी प्रकोष्ठ कहते हो ? और…
कुंभों के निकट जा कर एक कुंभ को छूती है।
इसे ?
मल्लिका : कुंभ।
रंगिणी : कुंभ ? प्रकोष्ठ को प्रकोष्ठ और कुंभ को कुंभ ?
निराशा से कंधे हिलाती है।
संगिनी : देखो, यहाँ के कुछ स्थानीय शब्द नहीं हैं ?
मल्लिका हतप्रभ-सी उनकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : स्थानीय शब्द ?
संगिनी : हाँ, आंचलिक शब्द। जैसे पतंजलि ने लिखा है न कि यद्वा को कुछ लोग यर्वा बोलते हैं और तद्वा को तर्वा। यर्वाणस्तर्वाण: ऋषयो बभूवु:।
मल्लिका : मुझे इतना ज्ञान नहीं है।
संगिनी कुछ निराश-सी आसन पर बैठ जाती है। रंगिणी घूम कर प्रकोष्ठ की एक-एक वस्तु का निरीक्षण करती है। मल्लिका संगिनी के पास चली जाती है।
संगिनी : देखो, हम कुछ ऐसी बातें जानना चाहती हैं जिनका संबंध यहाँ के और केवल यहाँ के जीवन से हो। तुम्हारे घर और वस्त्र तो लगभग हमारे जैसे हैं। यहाँ के जीवन की अपनी विशेषता क्या है ?
मल्लिका : यहाँ के जीवन की अपनी विशेषता ?
पल-भर झरोखे की ओर देखती रहती है।
मैं नहीं जानती। हमारा जीवन हर दृष्टि से बहुत साधारण है।
संगिनी : यह मैं नहीं मान सकती। इस प्रदेश ने कालिदास जैसी असाधारण प्रतिभा को जन्म दिया है। यहाँ की तो प्रत्येक वस्तु असाधारण होनी चाहिए।
रंगिणी चूल्हे के आसपास की सब वस्तुओं को अच्छी तरह देख कर तथा एक बार अंदर झाँक कर उसके पास आ जाती है।
रंगिणी : देखो, मैं तुम्हें समझाती हूँ। बात यह है कि राजकीय नियोजन से हम दोनों कवि कालिदास के जीवन की पृष्ठभूमि का अध्ययन कर रही हैं। तुम समझ सकती हो कि यह कितना बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य है। परंतु यहाँ घूम कर हम तो लगभग निराश हो चुकी हैं, यहाँ कुछ सामग्री है ही नहीं।
संगिनी : अच्छा, यहाँ के कुछ वनस्पतियों के नाम बताइए।
मल्लिका : कैसे वनस्पति ?
संगिनी : कैसे वनस्पति ?
सोचने लगती है।
जैसे कालिदास ने ‘कुमारसंभव’ में लिखा है-
‘भास्वन्नि रत्नाति महौषधींश्च।’ ये प्रकाश देनेवाली ओषधियाँ कौन-सी हैं ?
मल्लिका : ओषधियाँ प्रकाश नहीं देतीं।
संगिनी उठ खड़ी होती है।
संगिनी : ओषधियाँ प्रकाश नहीं देतीं ? तुम्हारा अभिप्राय है कि कालिदास ने जो लिखा है, वह झूठ है ?
मल्लिका : उन्होंने कुछ भी झूठ नहीं लिखा। उनहोंने तो लिखा है कि…
रंगिणी : रहने दे संगिनी ! यह यहाँ के संबंध में विशेष कुछ नहीं जानती।
संगिनी भी निराशा से मुँह बिचका कर उठ खड़ी होती है।
संगिनी : अच्छा, तुम्हारा बहुत समय नष्ट किया। क्षमा करना। चल, रंगिणी !
दोनों चली जाती हैं। मल्लिका ड्योढ़ी का किवाड़ बंद कर देती है। आसन के पास जा कर नीचे बैठ जाती है और बिखरे पृष्ठों पर सिर टिका देती है। उसकी आँखें मुँद जाती हैं।
मल्लिका : आज वर्षों के बाद तुम लौट कर आए हो ! सोचती थी तुम आओगे तो उसी तरह मेघ घिरे होंगे, वैसा ही अँधेरा-सा दिन होगा, वैसे ही एक बार वर्षा में भीगूँगी और तुमसे कहूँगी कि देखो मैंने तुम्हारी सब रचनाएँ पढ़ी हैं…
कुछ पृष्ठ हाथ में ले लेती है।
उज्जयिनी की ओर जानेवाले व्यवसायियों से कितना-कितना कह कर मैंने तुम्हारी रचनाएँ मँगवाई हैं।…सोचती थी तुम्हें ‘मेघदूत’ की पंक्तियाँ गा-गा कर सुनाऊँगी। पर्वत-शिखर से घंटा-ध्वनियाँ गूँज उठेंगी और मैं अपनी यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूँगी…
मोढ़े पर रखा ग्रंथ उठा लेती है।
कहूँगी कि देखो, ये तुम्हारी नई रचना के लिए हैं। ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बना कर सिए हैं। इन पर तुम जब जो भी लिखोगे, उसमें मुझे अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूँ, मेरा भी कुछ है।
नि:श्वास छोड़ कर ग्रंथ रख देती है।
परंतु आज तुम आए हो, तो सारा वातावरण ही और है। और…और नहीं सोच पा रही कि तुम भी वही हो या…?
कोई किवाड़ खटखटाता है। वह अपने को झटक कर उठ खड़ी होती है और जा कर किवाड़ खोल देती है। ड्योढ़ी में अनुस्वार और अनुनासिक साथ-साथ खड़े दिखाई देते हैं। मल्लिका उन्हें देख कर असमंजस में पड़ जाती है।
अनुस्वार : मुझे विश्वास है मैं इस समय देवी मल्लिका के सामने खड़ा हूँ।
मल्लिका : कहिए।
अनुस्वार : देव मातृगुप्त के अनुचरों का अभिवादन स्वीकार कीजिए।
दोनों झुक कर अभिवादन करते हैं। मल्लिका भौचक्की-सी उन्हें देखती रहती है।
मल्लिका : देव मातृगुप्त ? देव मातृगुप्त कौन हैं ?
अनुस्वार : ‘ऋतुसंहार’, ‘कुमारसंभव’, ‘मेघदूत’ एवं ‘रघुवंश’ के प्रणेता कवींद्र, राजनीति-निष्णात आचार्य तथा काश्मीर के भावी शासक। देव मातृगुप्त की राजमहिषी गुप्तवंश-दुहिता परम विदुषी देवी प्रियंगुमंजरी आपके साक्षात्कार के लिए उत्सुक हैं और शीघ्र ही यहाँ आना चाहती हैं। हम उनके अनुचर आपको इसकी पूर्वसूचना देने के लिए उपस्थित हैं।
मल्लिका : ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ आदि के प्रणेता तो कालिदास हैं और आप कह रहे हैं कि…।
अनुस्वार : वे गुप्त राज्य की ओर से काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं। मातृगुप्त उन्हीं का नया नाम है।
मल्लिका : वे काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं ? और…और उनकी राजमहिषी मुझसे मिलने के लिए आ रही हैं ?
अनुस्वार : मुझे विश्वास है कि इस गौरवपूर्ण अवसर पर आप अपने उपवेश-गृह के वस्तु-विन्यास में कुछ परिवर्तन आवश्यक समझेंगी। इसे आपका आदेश समझते हुए हम यह कार्य अभी अपने हाथों संपन्न किए देते हैं। आओ, अनुनासिक।
दोनों प्रकोष्ठ में आ कर निरीक्षण करने की दृष्टि से सब वस्तुओं को देखने लगते हैं। मल्लिका एक ओर हट जाती है। अनुनासिक आसन के पास चला जाता है।
अनुनासिक : मैं समझता हूँ यह आसन द्वार के निकट होना चाहिए।
अनुस्वार : देवी द्वार से प्रवेश करेंगी और आसन द्वार के निकट होगा ?
अनुनासिक : उस स्थिति में इसे इसकी वर्तमान स्थिति से सात अंगुल दक्षिण की ओर हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : दक्षिण की ओर ?
नकारात्मक भाव से सिर हिलाता है।
मैं समझता हूँ इसकी स्थिति पाँच अंगुल उत्तर की ओर होनी चाहिए। गवाक्ष से सूर्य की किरणें सीधी इस पर पड़ती हैं।
अनुनासिक : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुस्वार : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो विवादास्पद विषय होने से आसन को यहीं रहने दिया जाए।
अनुनासिक : अच्छी बात है। इसे यहीं रहने दिया जाए। और ये कुंभ ?
कुंभों के पास चला जाता है।
अनुस्वार : मैं समझता हूँ एक कुंभ इस कोने में और दूसरा उस कोने में होना चाहिए।
अनुनासिक : पर मैं समझता हूँ कि कुंभ यहाँ होने ही नहीं चाहिए।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : क्यों का कोई उत्तर नहीं।
अनुस्वार : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुनासिक : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो कुंभों को भी यहीं रहने दिया जाए।
दोनों उधर जाते हैं जिधर रस्सी पर वस्त्र सूखने के लिए फैलाए गए हैं। मल्लिका आसन के पास जा कर बिखरे पन्नों को समेटती है और उन्हें मोढ़े पर रख कर चुपचाप अंदर चली जाती है। अनुस्वार गीले वस्त्रों को छूता है।
अनुस्वार : ये वस्त्र ?
अनुनासिक : वस्त्र अभी गीले हैं, इसलिए इन्हें नहीं हटाना चाहिए।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : शास्त्रीय प्रमाण ऐसा है।
अनुस्वार : कौन-सा प्रमाण है ?
अनुनासिक : यह तो मुझे याद नहीं।
अनुस्वार : यह याद है कि ऐसा प्रमाण है ?
अनुनासिक : हाँ।
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो संदिग्ध विषय है।
अनुस्वार : हाँ, तब तो अवश्य संदिग्ध विषय है।
अनुनासिक : संदिग्ध विषय होने से वस्त्रों को भी रहने दिया जाए।
अनुस्वार : अच्छी बात है। वस्त्रों को भी रहने दिया जाए।
अनुनासिक : परंतु यह चूल्हा अवश्य यहाँ से हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : चूल्हा हटाने का अर्थ होगा आस-पास की सब वस्तुओं को हटाया जाए। इसके लिए बहुत समय चाहिए।
अनुनासिक : समय के अतिरिक्त बहुत धैर्य चाहिए।
अनुस्वार : धैर्य के अतिरिक्त बहुत परिश्रम चाहिए।
अनुनासिक : मैं समझता हूँ कि भाजनों को हाथ लगाना हमारी स्थिति के अनुकूल नहीं है।
अनुस्वार : मैं भी यही समझता हूँ |
अनुनासिक : तो इस बात में हम दोनों सहमत हैं कि चूल्हे को न हटाया जाए ?
अनुस्वार : मैं समझता हूँ हम दोनों सहमत हैं।
अनुनासिक चारों ओर देखता है।
अनुनासिक : और तो कुछ शेष नहीं ?
अनुस्वार भी चारों ओर देखता है।
अनुस्वार : मेरे विचार में कुछ भी शेष नहीं।
अनुनासिक : नहीं, अभी शेष है।
अनुस्वार : क्या ?
अनुनासिक : यह चौकी यहाँ रास्ते में पड़ी है। इसे यहाँ से हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : मैं इससे सहमत हूँ।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो इसे हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : हाँ, अवश्य हटा देना चाहिए।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : हटा दो।
अनुस्वार : मैं ?
अनुनासिक : हाँ।
अनुस्वार : तुम नहीं ?
अनुनासिक : नहीं।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : क्यों का कोई उत्तर नहीं।
अनुस्वार : फिर भी ?
अनुनासिक : पहले मैंने तुमसे कहा है।
अनुस्वार : परंतु चौकी देखी पहले तुमने है।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : हटा दो।
अनुस्वार : तुम हटा दो।
अनुनासिक : तो रहने दो।
अनुस्वार : रहने दो।
अनुनासिक : अब ?
अनुस्वार : हाँ, अब ?
अनुनासिक : चारों ओर एक दृष्टि और डाल लें।
अनुस्वार : हाँ, चारों ओर एक दृष्टि और डाल लें।
मातुल उत्तेजित-सा बाहर से आता है।
मातुल : अधिकारी-वर्ग, आपका कार्य यहाँ पूरा हो गया।
अनुनासिक : क्यों अनुस्वार ?
अनुस्वार : हाँ, पूरा हो गया। हो गया न ? क्यों अनुनासिक ?
अनुनासिक : हाँ, हो गया। केवल एक दृष्टि डालना शेष है।
अनुस्वार : हाँ, केवल एक दृष्टि डालना शेष है।
मातुल : तो वह दृष्टि अब रहने दीजिए। देवी प्रियंगुमंजरी बाहर पहुँच गई हैं।
अनुनासिक : देवी बाहर पहुँच गई हैं ! तो चलो अनुस्वार।
अनुस्वार : चलो।
दोनों साथ-साथ बाहर चले जाते हैं। मातुल भी पीछे-पीछे चला जाता है और कुछ क्षण बाद प्रियंगुमंजरी को मार्ग दिखलाता वापस आता है।
मातुल : वह इस सारे प्रदेश में सबसे सुशील, सबसे विनीत और सबसे भोली लड़की है…।
मल्लिका अंदर से आती है।
आओ-आओ, मल्लिका ! मैं देवी से तुम्हारी ही प्रशंसा कर रहा था।
चाटुकारिता की हँसी हँसता है।
देवी जब से आई हैं, तुम्हारे ही संबंध में पूछ रही हैं।…तो यही है हमारी मल्लिका, इस प्रदेश की राजहंसिनी…अ…अ…मल्लिका, देवी के लिए कौन-सा आसन निश्चित किया गया है ?
मल्लिका प्रियंगुमंजरी को अभिवादन करती है। प्रियंगुमंजरी मुस्करा कर अभिवादन की स्वीकृति देती है।
प्रियंगु : आर्य मातुल, आप अब जा कर विश्राम करें। अनुचर मेरे लौटने तक बाहर प्रतीक्षा करेंगे।
मातुल : परंतु आपके लिए आसन…?
प्रियंगु : उसकी चिंता न करें। मुझे असुविधा नहीं होगी।
मातुल : असुविधा तो होगी। आप असुविधा को असुविधा न मानें, यह दूसरी बात है। और वास्तव में कुलीनता कहते इसी को हैं। बड़े कुल की विशेषता ही यह होती है कि…
प्रियंगु : आप विश्राम करें। मैंने पहले ही आपको बहुत थकाया है।
मातुल : मुझे थकाया है ? आपने ?
फिर चाटुकारिता की हँसी हँसता है।
आपके कारण मैं थकूँगा ? मुझे आप दिन-भर पर्वत-शिखर से खाई में और खाई से पर्वत-शिखर पर जाने को कहती रहें, तो भी मैं नहीं थकूँगा। मातुल का शरीर लोहे का बना है, लोहे का। आत्म-श्लाघा नहीं करता, परंतु हमारे वंश में केवल प्रतिभा ही नहीं, शरीर-शक्ति भी बहुत है। मैं पशुओं के पीछे दिन में दस-दस योजन घूमा हूँ। मैं कहता हूँ संसार में सबसे कठिन काम कोई है तो पशु-पालन का। एक भी पशु मार्ग से भटक जाए, तो…।
प्रियंगु : देखिए, आज भी आपके पशु भटक रहे होंगे। जा कर एक बार उन्हें देख लीजिए।
मातुल : अब मैं पशु को देखता हूँ ? गुप्त वंश के साथ संबंध, और पशुओं की देख-रेख? मैं ने तो अपने सब पशु वर्षों पहले ही बेच दिए। और सच कहूँ, तो उसमें भी मुझे लाभ ही रहा क्योंकि…
प्रियंगु की दृष्टि मल्लिका से मिल जाती है। वह बढ़ कर मल्लिका के हाथ अपने हाथों में ले लेती है।
प्रियंगु : सचमुच वैसी ही हो जैसी मैंने कल्पना की थी।
मल्लिका कुछ अव्यवस्थित हो कर उसे देखती रहती है।
मातुल : क्योंकि…अ…अ…अच्छा, तो मुझे अनुमति दीजिए। घर में कईं कुछ बिखरा पड़ा है। कई तरह की व्यवस्था करनी है। तो अनुचर, आपकी प्रतीक्षा करेंगे।…फिर भी मेरे लिए कोई आदेश हो, तो कहला दीजिएगा…मल्लिका, देवी के बैठने की कुछ तो व्यवस्था कर दो। नहीं, ये तो ऐसे ही खड़ी रहेंगी। अच्छा, मैं चल रहा हूँ। कोई आदेश हो तो कहला दीजिएगा।
प्रियंगु : आप चलें। यहाँ के लिए चिंता करने की आवश्यकता नहीं।
मातुल : अच्छा-अच्छा…!
चल देता है।
मुझे चिंता करने की क्या आवश्यकता है ? चिंता करने के लिए यहाँ मल्लिका है, अंबिका है।…फिर भी कोई काम हो, तो कहला दीजिएगा…।
चला जाता है। प्रियंगुमंजरी क्षण-भर मल्लिका को देखती रहती है। फिर उसकी ठोड़ी को हाथ से छू लेती है।
प्रियंगु : सचमुच बहुत सुंदर हो। जानती हो, अपरिचित होते हुए भी तुम मुझे परिचित नहीं लग रहीं ?
मल्लिका : आप बैठ जाइए न।
प्रियंगु : नहीं, बैठना नहीं चाहती। तुम्हें और तुम्हारे घर को देखना चाहती हूँ। उन्होंने बहुत बार इस घर की और तुम्हारी चर्चा की है। जिन दिनों ‘मेघदूत’ लिख रहे थे, उन दिनों प्राय: यहाँ का स्मरण किया करते थे।
दृष्टि चारों ओर घूम कर फिर मल्लिका के चेहरे पर स्थिर हो जाती है।
आज इस भूमि का आकर्षण ही हमें यहाँ ले आया है। अन्यथा दूसरे मार्ग से जाने में हमें अधिक सुविधा थी।
मल्लिका : मैं समझ नहीं पा रही किस रूप में आपका आतिथ्य करूँ। आप आसन ले लें, तो मैं आपके लिए…।
प्रियंगु : आतिथ्य की बात मत सोचो। मैं तुम्हारे यहाँ अतिथि के रूप में नहीं आई हूँ।…संभव था ये न भी आते, परंतु मैं ही विशेष आग्रह के साथ इन्हें लाई हूँ। मैं स्वयं एक बार इस प्रदेश को देखना चाहती थी। इसके अतिरिक्त…
गले से हलका विदग्धतापूर्ण स्वर निकल पड़ता है।
इसके अतिरिक्त एक और भी कारण था। चाहती थी कि इस प्रदेश का कुछ वातावरण साथ ले जाऊँ।
मल्लिका : इस प्रदेश का वातावरण ?
प्रियंगुमंजरी मुस्करा कर उसे देखती है। फिर टहलती हुई झरोखे के पास चली जाती है।
प्रियंगु : यहाँ से बहुत दूर तक की पर्वत-शृंखलाएँ दिखाई देती हैं।…कितनी निर्व्याज सुंदरता है। मुझे यहाँ आ कर तुमसे स्पर्द्धा हो रही है।
मल्लिका दो-एक पग उस ओर को बढ़ आती है।
मल्लिका : हमारा सौभाग्य होगा कि आप कुछ दिन इस प्रदेश में रह जाएँ। यहाँ आपको असुविधा तो होगी, परंतु…।
प्रियंगुमंजरी फिर विदग्ध भाव से उसे देखती है।
प्रियंगु : इस सौंदर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं। इसे आँखों में व्याप्त करने के लिए जीवन भर का समय भी पर्याप्त नहीं।
झरोखे के पास से हट आती है।
परंतु इतना अवकाश कहाँ है ? काश्मीर की राजनीति इतनी अस्थिर है कि हमारा एक-एक दिन वहाँ से दूर रहना कई-कई समस्याओं को जन्म दे सकता है।…एक प्रदेश का शासन बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। हम पर तो और भी बड़ा उत्तरदायित्व है क्योंकि काश्मीर की स्थिति इस समय बहुत संकटपूर्ण है। यूँ वहाँ के सौंदर्य की ही इतनी चर्चा है, परंतु हमें उसे देखने का अवकाश कहाँ रहेगा ?
बाँहें पीछे टिकाए आसन पर बैठ जाती है।
इसलिए तुमसे स्पर्धा होती है। सौंदर्य का यह सहज उपभोग हमारे लिए केवल एक सपना है।…बैठ जाओ।
आसन पर अपने सामने बैठने के लिए संकेत करती है। मल्लिका नीचे बैठने लगती है , तो वह उसे रोक देती है।
यहाँ मेरे पास बैठो।
मल्लिका : मैं दूसरा आसन ले लेती हूँ।
कोने से मोढ़ा उठा कर आसन के पास रख लेती है और उस पर रखे भोजपत्र आदि गोदी में रख कर बैठ जाती है।
प्रियंगु : लगता है यहाँ ग्राम-प्रदेश में रह कर भी तुम्हें साहित्य से अनुराग है।
मल्लिका की आँखें झुक जाती हैं।
किसकी रचनाएँ हैं ये ?
मल्लिका : कालिदास की।
प्रियंगु की भौंहें कुछ संकुचित हो जाती हैं।
प्रियंगु : अब वे मातृगुप्त के नाम से जाने जाते हैं। यहाँ भी उनकी रचनाएँ मिल जाती हैं?
मल्लिका : ये प्रतियाँ मैंने उज्जयिनी से आनेवाले व्यवसायियों से प्राप्त की हैं।
प्रियंगुमंजरी के होंठों पर हलकी व्यंग्यात्मक मुस्कराहट प्रकट होती है।
प्रियंगु : मैं समझ सकती हूँ। उनसे जान चुकी हूँ कि तुम बचपन से उनकी संगिनी रही हो। उनकी रचनाओं के प्रति तुम्हारा मोह स्वाभाविक है।
जैसे कुछ सोचती-सी छत की ओर देखने लगती है।
वे भी जब-तब यहाँ के जीवन की चर्चा करते हुए आत्म-विस्मृत हो जाते हैं। इसीलिए राजनीतिक कार्यों से कई बार उनका मन उखड़ने लगता है।
फिर उसकी आँखें मल्लिका के मुख पर स्थिर हो जाती हैं।
ऐसे अवसरों पर उनके मन को संतुलित रखने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। राजनीति साहित्य नहीं है। उसमें एक-एक क्षण का महत्त्व है। कभी एक क्षण के लिए भी चूक जाएँ, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो सकता है। राजनीतिक जीवन की धुरी में बने रहने के लिए व्यक्ति को बहुत जागरूक रहना पड़ता है।…साहित्य उनके जीवन का पहला चरण था। अब वे दूसरे चरण में पहुँच चुके हैं। मेरा अधिक समय इसी आयास में बीतता है कि उनका बढ़ा हुआ चरण पीछे न हट जाए।…बहुत परिश्रम करना पड़ता है इसमें।
मुस्कराने का प्रयत्न करती है।
तुम ऐसा नहीं समझतीं ?
मल्लिका : मैं राजनीतिक जीवन के संबंध में कुछ भी नहीं जानती।
प्रियंगु : क्योंकि तुम ग्राम-प्रदेश में ही रही हो।
उठ खड़ी होती है। मल्लिका भी उठने लगती है , तो कंधे पर हाथ रख कर वह उसे बिठा देती है।
बैठी रहो।
निचले होंठ को थोड़ा चबाती हुई टहलने लगती है।
मैंने तुमसे कहा था कि मैं यहाँ का कुछ वातावरण साथ ले जाना चाहती हूँ। यह इसलिए कि उन्हें अभाव का अनुभव न हो। उससे कई बार बहुत क्षति होती है। वे व्यर्थ में धैर्य खो देते हैं, जिसमें समय भी जाता है, शक्ति भी। उनके समय का बहुत मूल्य है। मैं चाहती हूँ उनका समय उस तरह नष्ट न हुआ करे।
मल्लिका के सामने आ कर रुक जाती है।
इसीलिए मैं यहाँ से कई कुछ अपने साथ ले जा रही हूँ। कुछ हरिणशावक जाएँगे, जिनका हम अपने उद्यान में पालन करेंगे। यहाँ की ओषधियाँ उद्यान के क्रीड़ा-शैल पर तथा आसपास के प्रदेश में लगवा दी जाएँगी। हम यहाँ के-से कुछ घरों का भी वहाँ निर्माण करेंगे। मातुल और उनका परिवार भी साथ जाएगा। यहाँ से कुछ अनाथ बच्चों को वहाँ ले जा कर हम शिक्षा देंगे। मैं समझती हूँ इससे अंतर पड़ेगा।
फिर टहलती हुई प्रकोष्ठ के दूसरे भाग में चली जाती है।
देख रही हूँ तुम्हारा घर बहुत जर्जर स्थिति में है। इसका परिसंस्कार आवश्यक है। चाहो, तो मैं इस कार्य के लिए आदेश दे जाऊँगी। उज्जयिनी के दो कुशल स्थपति हमारे साथ आए हैं। क्यों?
मल्लिका उठ कर उसकी ओर आती है।
मल्लिका : आप बहुत उदार हैं। परंतु हमें ऐसे ही घर में रहने का अभ्यास है, इसलिए असुविधा नहीं होती।
प्रियंगु : फिर भी चाहूँगी कि इस घर का परिसंस्कार हो जाए। उनके जीवन के आरंभिक वर्षों का इस घर के साथ भी संबंध रहा है। मातुल के घर के स्थान पर मैंने नए भवन के निर्माण का आदेश दिया है। स्थपतियों से कहा है कि वे उज्जयिनी से श्लक्ष्ण शिलाएँ ला कर कार्य आरंभ करें। खेद है कि कार्य के निरीक्षण के लिए मैं स्वयं यहाँ नहीं रह पाऊँगी। कल ही हमें आगे की यात्रा आरंभ कर देनी होगी।…तुम भी हमारे साथ क्यों नहीं चलती ?
मल्लिका विमूढ़-सी उसकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : मैं ?
प्रियंगु पास आ कर उसके कंधे पर हाथ रख देती है।
प्रियंगु : हाँ ! इसमें बाधा क्या है ? यहाँ तुम किसी ऐसे सूत्र से तो बँधी नहीं हो कि…
मल्लिका : मेरी माँ यहाँ है।
प्रियंगु : यह कोई बाधा नहीं है। तुम्हारी माँ के भी साथ चलने की व्यवस्था हो सकती है। हमारे स्थपति इस घर का परिसंस्कार करते रहेंगे, तुम वहाँ मेरे साथ मेरी संगिनी के रूप में रहोगी।
मल्लिका के चेहरे पर आहत अभिमान की रेखाएँ प्रकट होती हैं। परंतु वह अपने को दबाए रखती है।
मल्लिका : क्षमा चाहती हूँ। मैं अपने को ऐसे गौरव की अधिकारिणी नहीं समझती।
प्रियंगु : परंतु मैं तुम्हें इससे कहीं अधिक की अधिकारिणी समझती हूँ।…मेरे आने से पहले राज्य के दो अधिकारी यहाँ आए थे।
होंठों पर फिर विदग्ध मुस्कान आ जाती है।
मैंने उन्हें औपचारिकता के लिए ही नहीं भेजा था।
मल्लिका उसका अर्थ समझने का प्रयत्न करती हुई अनिश्चित-सी उसकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : देखा है।
प्रियंगु : तुम उनमें से जिसे भी अपने योग्य समझो, उसी के साथ तुम्हारे विवाह का प्रबंध किया जा सकता है। दोनों योग्य अधिकारी हैं।
मल्लिका : देवि !
भोजपत्रों को वक्ष से सटाए कुछ पग आसन की ओर हट जाती। प्रियंगुमंजरी उसे सीधी दृष्टि से देखती हुई धीरे-धीरे उसके पास चली जाती है।
प्रियंगु : संभवत: तुम दोनों में से किसी को भी अपने योग्य नहीं समझती। परंतु राज्य में ये दो ही नहीं, और भी अनेक अधिकारी हैं। मेरे साथ चलो। तुम जिससे भी चाहोगी…
मल्लिका आसन पर बैठ जाती है और रुँधे आवेश से अपना होंठ काट लेती है।
मल्लिका : इस विषय की चर्चा छोड़ दीजिए।
गला रुँध जाने से शब्द स्पष्ट ध्वनित नहीं होते। अंदर का द्वार खुलता है और अंबिका रोग और आवेश के कारण शिथिल और काँपती-सी बाहर आ कर जैसे अपने को सहेजने के लिए रुकती है।
प्रियंगु : क्यों ? तुम्हारे मन में कल्पना नहीं है कि तुम्हारा अपना घर-परिवार हो ?
अंबिका धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती है।
अंबिका : नहीं। इसके मन में यह कल्पना नहीं है।
प्रियंगु घूम कर उसकी ओर देखती है। मल्लिका अव्यवस्थित भाव से उठ खड़ी होती है।
मल्लिका : माँ !
अंबिका : इसके मन में यह कल्पना नहीं है क्योंकि यह भावना के स्तर पर जीती है। इसके लिए जीवन में…
साँस फूल जाने से शब्द गले में अटक जाते हैं। मल्लिका हाथ के पृष्ठ आसन पर रख देती है और पास जा कर अंबिका को पीठ से सहारा देती है।
मल्लिका : तुम उठ क्यों आईं, माँ ? तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। चलो, चल कर लेट रहो।
उसे वापस अंदर ले जाना चाहती है , परंतु अंबिका उसका हाथ अपनी पीठ से हटा देती है।
अंबिका : मैं किसी आनेवाले से बात भी नहीं कर सकती ? दिन, मास, वर्ष मुझे घुटते हुए बीत गए हैं। मेरे लिए यह घर घर नहीं, एक काल-गुफा है जिसमें मैं हर समय बंद रहती हूँ। और तुम चाहती हो, मैं किसी से बात भी न करूँ।
चलने की चेष्टा में गिरने को हो जाती है। उसे सँभाल लेती है।
मल्लिका : परंतु माँ, तुम स्वस्थ नहीं हो।
अंबिका : तुम्हारी अपेक्षा मैं फिर भी अधिक स्वस्थ हूँ।
प्रियंगु के पास जा कर उसे सिर से पैर तक देखती है।
यह घर सदा से इस स्थिति में नहीं है, राजवधू ! मेरे हाथ चलते थे, तो मैं प्रतिदिन इसे लीपती-बुहारती थी। यहाँ की हर वस्तु इस तरह गिरी-टूटी नहीं थी। परंतु आज तो हम दोनों माँ-बेटी भी यहाँ टूटी-सी पड़ी रहती हैं। यह सब इसलिए कि…।
फिर साँस फूल जाने से आगे नहीं बोल पाती प्रियंगुमंजरी प्रकोष्ठ पर दृष्टि डालने के बहाने उसके पास से हट जाती है।
प्रियंगु : मैं देख रही हूँ घर की स्थिति अच्छी नहीं है। मल्लिका मेरे साथ चल सकती, तो समस्या वैसे ही सुलझ जाती। परंतु अब…
होंठ काटती हुई जैसे सोचने के लिए क्षण भर रुकती है।
अब भी जो कुछ संभव है, मैं कर जाऊँगी। स्थपतियों को आदेश दे जाऊँगी कि इस घर को गिरा कर इसके स्थान पर…
मल्लिका चिहुँक जाती है।
मल्लिका : ऐसा मत कीजिए। इस घर को गिराने का आदेश मत दीजिए।
प्रियंगुमंजरी फिर सीधी दृष्टि से उसे देखती है।
प्रियंगु : मैं तुम्हारी सुविधा के लिए ही कह रही थी। तुम्हें इसमें असुविधा है, तो…ठीक है। मैं ऐसा आदेश नहीं दूँगी। फिर भी चाहती हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ न कुछ कर सकूँ…। इस समय और नहीं रुक सकती। कल की यात्रा से पहले कई आवश्यक कार्य पूरे करने हैं। यूँ तो इस समय भी अवकाश नहीं था। पर मैंने आना आवश्यक समझा। वे पर्वत-शिखर की ओर घूमने गए थे। मैं उस बीच इधर चली आई। अच्छा…!
मल्लिका की उँगलियाँ उलझ जाती हैं और आँखें झुक जाती हैं। अंबिका अपने आवेश में दो-एक पग प्रियंगु की ओर बढ़ जाती है।
अंबिका : मैं तुमसे कुछ कहना चाहती थी, राजवधू ! तुम्हें बताना चाहती थी कि हम लोग…हम लोग…।
खाँसने लगती है और शब्द खाँसी में डूब जाते हैं। प्रियंगुमंजरी द्वार के पास से मुड़ कर उसकी ओर देखती है।
प्रियंगु : मैं आपका कष्ट समझ रही हूँ। जो भी सहायता मुझसे बन पड़ेगी, अवश्य करूँगी। इस समय अनुचर प्रतीक्षा कर रहे हैं, इसलिए…
गंभीर मुस्कराहट के साथ मल्लिका को देख कर सिर हिलाती है और चली जाती है। अंबिका आवेश से शिथिल उस ओर देखती रहती है। फिर गिरती-सी आसन पर बैठ जाती है और कुछ पन्ने उठा कर मल्लिका की ओर बढ़ा देती है।
अंबिका : लो, ‘मेघदूत’ की पंक्तियाँ पढ़ो। इन्हीं में न कहती थीं उसके अंतर की कोमलता साकार हो उठी है ? आज इस कोमलता का और भी साकार रूप देख लिया ?
मल्लिका ठगी-सी उसकी ओर देखती रहती है।
आज वह तुम्हें तुम्हारी भावना का मूल्य देना चाहता है, तो क्यों नहीं स्वीकार कर लेती? घर की भित्तियों का परिसंस्कार हो जाएगा और तुम उनके यहाँ परिचारिका बन कर रह सकोगी। इससे बड़ा और क्या सौभाग्य तुम्हें चाहिए ?
मल्लिका : राजकन्या की अपनी जीवन-दृष्टि है माँ ! उसके लिए और कोई कैसे उत्तरदायी है ?
अंबिका : परंतु राजकन्या के यहाँ आने के लिए कौन उत्तरदायी है ? नि:संदेह वह किसी की इच्छा के बिना यहाँ नहीं आई। राज्य के स्थपति से घर की भित्तियों का परिसंस्कार कर देंगे ! आज वह शासक है, उसके पास संपत्ति है। उस शासन और संपत्ति का परिचय देने के लिए इससे अच्छा और क्या उपाय हो सकता था ?
मल्लिका : परंतु माँ…।
अंबिका : माँ कुछ नहीं जानती। कुछ नहीं समझती। माँ भावना की गहराई तक नहीं जाती। माँ…।
फिर खाँसी उठ आने से आगे नहीं बोल पाती। विलोम बाहर से आता है।
विलोम : इस तरह क्षुब्ध क्यों हो, अंबिका …? आज तो सारा ग्राम तुम्हारे सौभाग्य पर तुमसे स्पर्द्धा कर रहा है।
अर्थपूर्ण दृष्टि से मल्लिका की ओर देखता है। मल्लिका आँखें बचा कर दूसरी ओर हट जाती है।
राजकीय पगधूलि घर में पड़ती है, तो लोग गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसा अवसर हर किसी के जीवन में कहाँ आता है ?
अंबिका : यह अवसर देखने के लिए ही तो मैंने आज तक का जीवन जिया है ! इतना बड़ा सौभाग्य हमारे क्षुद्र जीवन में कहाँ समा सकता है !
उठ खड़ी होती है।
चलो, मैं स्वयं चल कर सारे ग्राम में इस सौभाग्य की घोषणा करूँगी। हमारे वर्षों के अभाव और दुख कितना बड़ा फल लाए हैं कि राज्य के स्थपति हमारे घर की भित्तियों का परिसंस्कार कर देंगे !
विलोम : बैठ जाओ, अंबिका ! आज ग्राम के पास तुम्हारी बात सुनने का अवकाश नहीं है।
टहलता हुआ झरोखे के पास चला जाता है।
ग्राम के लोग आज व्यस्त हैं। उन्हें बाहर से आए अतिथियों के लिए कई तरह की सामग्री जुटानी है। अतिथि आज यहाँ के पत्थर तक बटोर कर ले जाना चाहते हैं।
मल्लिका : यहाँ के पत्थर पहले भी मूलयवान थे, आर्य विलोम ! यह और बात है कि पहले किसी ने उनका मूल्य समझा नहीं।
अंबिका आवेश में कई पग उसकी ओर बढ़ जाती है।
अंबिका : तो जा कर तुम भी बटोर क्यों नहीं लेती ? संभव है फिर लोग यहाँ कोई पत्थर शेष न रहने दें और तुम्हारी भावना के लिए कोई आधार ही न रह जाए !
मल्लिका : बैठ जाओ, माँ, तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है।
उसे बाँह से पकड़ कर आसन पर बिठा देती है।
विलोम : ग्राम में चारों ओर बहुत उत्साह है। यह दिन इस प्रदेश के जीवन का सबसे बड़ा उत्सव है। लोग आज अपने पशुओं की चिंता नहीं कर रहे। वे अतिथियों के लिए भोजन और पान की सामग्री जुटाने में व्यस्त हैं। उस सामग्री में कुछ हरिणशावक भी होंगे जो राजकन्या के विशेष आदेश पर एकत्रित किए जा रहे हैं।
मल्लिका : यह सच नहीं है।
विलोम : सच नहीं है ? इंद्र वर्मा और विष्णुदत्त को राजकन्या ने स्वयं आदेश दिया है कि…।
मल्लिका : उस आदेश का कुछ और अर्थ भी हो सकता है।
विलोम : और अर्थ ? क्या और अर्थ हो सकता है ? क्या राजकन्या हरिणशावकों से खेला करेंगी ? या उज्जयिनी के कलाकार उनकी अनुकृतियाँ बनाएँगे ? यह भी एक मनोरंजक विषय है कि राज-परिवार के साथ आए राजधानी के कलाकार आज यहाँ की हर वस्तु की अनुकृतियाँ बनाते घूम रहे हैं। यहाँ का कोई पेड़, पत्ता, तिनका शेष नहीं रहेगा जिनकी वे अनुकृति बना कर नहीं ले जाएँगे।
मल्लिका : इसका भी कुछ दूसरा अर्थ हो सकता है।
विलोम झरोखे के पास से हट कर उसकी ओर आता है।
विलोम : मैं कब कहता हूँ कि दूसरा अर्थ नहीं है ? अर्थ बहुत स्पष्ट है। वे यहाँ की हर वस्तु को विचित्र के रूप में देखते हैं और उस वैचित्र्य को यहाँ से जा कर दूसरों को दिखाना चाहते हैं। तुम, मैं, यह घर, ये पर्वत, सब उनके लिए विचित्र के उदाहरण हैं। मैं तो उनकी सूक्ष्म और समर्थ दृष्टि की प्रशंसा करता हूँ जो यहाँ वैचित्र्य नहीं, वहाँ भी वैचित्र्य देख लेती है। एक कलाकार को मैंने यहाँ की धूप में अपनी छाया की अनुकृति बनाते देखा है।
अंबिका : यहाँ की धूप में उन्हें अपनी छायाएँ अवश्य और-सी लगती होंगी !…वह कौन राक्षसी थी जो जिस किसी जीव को उसकी छाया से पकड़ लेती थी ?
बोलते-बोलते फिर हाँफने लगती है।
मैं चाहती हूँ मैं ही वह राक्षसी होती जिससे आज मैं…आज मैं…।
खाँसी उठ आने से शब्द डूब जाते हैं। मल्लिका पास जा कर उसके कंधों को सहारा देती है।
मल्लिका : तुमसे कहा है माँ, तुम विश्राम करो। बात मत करो।…आर्य विलोम, माँ का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। इन्हें इस समय विश्राम करने दीजिए।
विलोम : हाँ, अंबिका को तुम अंदर ले जाओ। ग्राम का उत्सव-कोलाहल अंबिका के मन को और अशांत करेगा। मैं तो केवल उत्सव की सूचना देने आया था।…आश्चर्य है कि कालिदास ने यहाँ आना उचित नहीं समझा। कल तो सुनते हैं वे लोग चले भी जाएँगे।
अंबिका : उसने आना उचित नहीं समझा, क्योंकि वह जानता है अंबिका अभी जीवित है।
विलोम : परंतु मैं समझता हूँ वह एक बार आएगा अवश्य। उसे आना चाहिए। व्यक्ति किसी संबंध को ऐसे नहीं तोड़ता।
फिर टहलता हुआ झरोखे के पास चला जाता है।
और विशेष रूप से वह, जिसे एक कवि का कोमल हृदय प्राप्त हो। तुम क्या सोचती हो, मल्लिका ? उसे एक बार आना नहीं चाहिए ?
मल्लिका : मैंने आपसे अनुरोध किया है आर्य विलोम, कि इस समय माँ को विश्राम करने दीजिए। आपकी बातों से माँ का मन विक्षुब्ध होता है।
विलोम : मेरी बातों से अंबिका का मन विक्षुब्ध होता है ? मैं समझता हूँ उसके कारण दूसरे हैं। अंबिका जानती है किन कारणों से उसका मन विक्षुब्ध होता है।
झरोखे से बाहर देखने लगता है।
मैं भी उन कारणों को समझता हूँ। इसलिए बहुत-सी बातें, जो अंबिका के मन में रहती हैं, मैं मुँह से कह देता हूँ।
मुड़ कर मल्लिका की ओर देखता है।
तुम्हें मेरा यहाँ होना अखर रहा है, मैं जानता हूँ। यह कोई नई बात नहीं। परंतु मैं कुछ ही देर और यहाँ रहना चाहता हूँ।
फिर बाहर देखने लगता है।
पर्वत-शिखर की ओर से एक अश्वारोही को आते देख रहा हूँ। संभव है इस बार कुछ क्षणों के लिए वह यहाँ रुकना चाहे ! उस स्थिति में मैं भी उससे कुशल-क्षेम पूछ लूँगा। मेरी उससे पुरानी मित्रता है।
मल्लिका जैसे आपे से बाहर होने लगती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, उस स्थिति में आपका यहाँ होना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। आप उनसे मिलना चाहें, तो उसके लिए यही एक स्थान नहीं है।
विलोम उसी तरह बाहर देखता रहता है।
विलोम : परंतु यही स्थान क्या बुरा है ? उसके जाने के दिन भी हम यहीं पर मिले थे। वर्षों के बाद उसी स्थान पर मिलने से अंतराल का अनुभव नहीं होगा।
मल्लिका विलोम के पास चली जाती है और उसे बाँह से पकड़ कर झरोखे से हटा देना चाहती है।
मल्लिका : मैं अनुरोध करती हूँ आप इस समय यहाँ ठहरने का हठ न करें।
विलोम अपने स्थान से नहीं हिलता। दूर से घोड़े की टापों का शब्द सुनाई देने लगता है।
…मैं कह रही हूँ आप चले जाएँ। यह मेरा घर है। मैं नहीं चाहती, आप इस समय मेरे घर में हों।
विलोम फिर भी उसी तरह खड़ा रहता है। टापों का शब्द पास आता जाता है। मल्लिका उधर से हट कर अंबिका के पास आ जाती है।
माँ, इनसे कहो यहाँ से चले जाएँ। मैं नहीं चाहती इस समय यहाँ कोई अयाचित स्थिति उत्पन्न हो। तुम स्वस्थ नहीं हो, और मैं नहीं चाहती कि कोई भी ऐसी बात हो जिसका तुम्हारे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़े।
अंबिका उसके हिलाने से इस तरह हिलती है जैसे वह जड़ हो गई हो। उसके माथे पर त्योरियाँ पड़ी हैं और आँखें बिना पलक झपके सामने देख रही हैं। टापों का शब्द बहुत पास आ जाता है। मल्लिका फिर विलोम के पास चली जाती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, मैंने आपसे कहा है आप यहाँ से चले जाएँ। आप नहीं जानते कि…।
टापों का शब्द पास आ कर दूर जाने लगता है। मल्लिका ऐसे स्तब्ध हो रहती है जैसे उसे काठ मार गया हो। विलोम धीरे से मुड़ कर उसकी ओर देखता है।
विलोम : चला जाता हूँ।
कंठ से हल्का व्यंग्यात्मक स्वर निकलता है।
मैं नहीं चाहता मेरे कारण यहाँ कोई अयाचित स्थिति उत्पन्न हो। परंतु क्या अयाचित स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जान सकता हूँ ?
झरोखे से हट कर प्रकोष्ठ के बीच में आ जाता है।
क्यों अंबिका, मेरे यहाँ रहने से क्या अयाचित स्थिति उत्पन्न हो सकती है ?
अंबिका : मैं जानती थी। आज नहीं, तब से ही जानती थी। वह आता, तो मुझे आश्चर्य होता। अब मुझे आश्चर्य नहीं है।
स्वर ऊँचा उठता जाता है। मल्लिका जैसे सारी शक्ति खो कर , धीरे-धीरे आसन पर बैठ जाती है।
कोई आश्चर्य नहीं है। प्रसन्नता है कि मैं उसके संबंध में ठीक सोचती थी। जीवन एक भावना है ! कोमल भावना ! बहुत-बहुत कोमल भावना !
विलोम : परंतु मुझे खेद है। वर्षों से इस दिन की प्रतीक्षा थी। अपनी मित्रता पर भरोसा भी था…!
अर्थपूर्ण दृष्टि से मल्लिका की ओर देखता है।
परंतु अब भरोसा नहीं रहा। संभवत: यह मित्रता एक ओर से ही थी। उसने कभी हमें अपनी मित्रता के योग्य नहीं समझा। फिर समान की समान से मित्रता होती है…।
मल्लिका सहसा उठ खड़ी होती है। उसकी आँखों से हताशा की कठोरता झलक रही है।
मल्लिका : आर्य विलोम !
विलोम ऐसी दृष्टि से उसे देखता है , जैसे किसी बच्चे से खेल रहा हो।
मैं फिर कह रही हूँ आप चले जाएँ। अन्यथा वास्तव में ही यहाँ एक अयाचित स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
विलोम : ऐसा ?…
मुस्करा कर अंबिका की ओर देखता है।
तब तो मुझे अवश्य चले जाना चाहिए।…अच्छा अंबिका ! तुम्हारे स्वास्थ्य की मुझे बहुत चिंता रहती है। जहाँ तक संभव हो, घृत और मधु का सेवन करो। मैंने अभी-अभी नया मधु निकाला है। आवश्यकता हो, तो मैं तुम्हारे लिए…
मल्लिका : हमें मधु की आवश्यकता नहीं है। हमारे घर में मधु पर्याप्त मात्रा में है।
विलोम : ऐसा ?…अच्छा, अंबिका !
क्षण भर दोनों की ओर देखता रहता है , फिर चल देता है। द्वार के पास पहुँच कर फिर रुक जाता है।
…पर कभी मधु की आवश्यकता पड़ ही जाए, तो संकोच मत करना।
फिर चला जाता है। मल्लिका क्षण-भर सिर झुकाए दबी-सी खड़ी रहती है। फिर अपने को सँभाल पाने में असमर्थ , अंदर को चल देती है। अंबिका का भाव आवेश में हताशा और हताशा से करुणा में बदल जाता है।
अंबिका : मल्लिका !
मल्लिका रुक जाती है। पर कुछ भी उत्तर न दे कर मुँह हाथों में छिपा लेती है। अंबिका उठ कर धीरे-धीरे उसके पास आ जाती है और उसे बाँहों में ले लेती है। मल्लिका अंबिका के वक्ष में मुँह छिपा लेती है। सारा शरीर रुलाई से काँपता रहता है , पर गले से स्वर नहीं निकलता। अंबिका की आँखें भर आती हैं और वह उसके काँपते शरीर को अपने से सटाए उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहती है। फिर होंठों और गालों से उसके सिर को दुलारने लगती है।
अंबिका : अब भी रोती हो ? उसके लिए ? उस व्यक्ति के लिए जिसने…?
मल्लिका : उनके संबंध में कुछ मत कहो माँ, कुछ मत कहो…।
सिसकने लगती है। अंबिका उसे सहारे से वहीं बिठा लेती है और उसकी सिसकती पीठ पर झुक जाती है।

आषाढ़ का एक दिन-अंक 3

कुछ और वर्षों के बाद
वर्षा और मेघ गर्जन का शब्द। परदा उठने पर वही प्रकोष्ठ। एक दीपक जल रहा है। प्रकोष्ठ की स्थिति में पहले से बहुत अंतर दिखाई देता है। सब कुछ जर्जर और अस्तव्यस्त है। कुंभ केवल एक है और उसका भी कोना टूटा है। आसन अपने स्थान से हटा हुआ है और उस पर अब बाघ-छाल नहीं है। दीवारों पर से स्वस्तिक आदि के चिह्न लगभग बुझ चुके हैं। चूल्हे के पास केवल दो-एक बरतन हैं ,जिन पर स्याही चढ़ी है। एक कोने में फटे-मैले वस्त्र एकत्रित हैं। प्रकोष्ठ में कोई नहीं है। मातुल भीगे वस्त्रों में बैसाखी के सहारे चलता हुआ आता है। चारों ओर दृष्टि डाल कर एक लंबी साँस लेता है , नकारात्मक ढंग से सिर हिलाता है। और प्रकोष्ठ के बीचोबीच आ जाता है।
मातुल : मल्लिका !
मल्लिका का स्वर अंदर से सुनाई देता है।
मल्लिका : कौन है ?
मातुल : मैं हूँ, मातुल। देखो, वर्षा ने मातुल की क्या दुर्गति की है !
सिर से और वस्त्रों से पानी निचोड़ने लगता है , मल्लिका अंदर से आती है। उसके वस्त्र फटे हैं , रंग पहले से काला पड़ गया है और आँखों का भाव भी विचित्र-सा लगता है। उसके व्यक्तित्व में भी प्रकोष्ठ की-सी ही जीर्णता है। किवाड़ खुलने पर अंदर का जो भाग दिखाई देता है वहाँ अब तल्प के स्थान पर एक टूटा पालना रखा है। मल्लिका बाहर आ कर किवाड़ बंद कर देती है।
मल्लिका : आर्य मातुल, आप इस वर्षा में ?
मातुल : वर्षा से बचने के लिए तुम्हारे घर के सिवा कोई शरण नहीं थी। सोचा, जो हो, मातुल के लिए आज भी तुम वही मल्लिका हो।…यह आषाढ़ की वर्षा तो मेरे लिए काल हो रही है। पहले जब दो पैरों पर चल लेता था, तो मैंने कभी भारी से भारी वर्षा की चिंता नहीं की। परंतु अब यह स्थिति है कि बैसाखी आगे रखता हूँ तो पैर पीछे को फिसल जाता है और पैर आगे रखता हूँ तो बैसाखी पीछे को फिसल जाती है। यह जानता कि राज-प्रासाद में रह कर पाँव तोड़ बैठूँगा तो कभी ग्राम छोड़ कर वहाँ न जाता। अब पीछे से मेरा घर भी उन लोगों ने ऐसा कर दिया है कि कहीं पैर टिकता ही नहीं। इन चिकने शिलाखंडों से तो वह मिट्टी ही अच्छी थी जो पैर को पकड़ती तो थी। मैं तो अब घर के रहते बेघर हो रहा हूँ। न बाहर रहते बनता है न अंदर। उन श्वेत शिलाखंडों के दर्शन से ही मुझे प्रासाद का स्मरण हो आता है। जहाँ रह कर एक पाँव तोड़ आया हूँ।
मल्लिका : खड़े रहने में कष्ट होगा। आसन ले लीजिए।
मातुल आसन के पास जा कर बैसाखी रख देता है और जम कर बैठ जाता है।
मातुल : मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूँगा कि राज-प्रासाद में रहने से अधिक कष्ट कर स्थिति संसार में हो ही नहीं सकती। आप आगे देखते हैं, तो प्रतिहारी जा रहे हैं। पीछे देखते हैं, तो प्रतिहारी आ रहे हैं। सच कहता हूँ, मुझे कभी पता ही नहीं चल पाया कि प्रतिहारी मेरे पीछे चल रहे हैं या मैं प्रतिहारियों के पीछे चल रहा हूँ।…और इससे भी कष्ट कर स्थिति यह थी कि जिन व्यक्तियों को देख कर मेरा आदर से सिर झुकाने को मन करता था, वे मेरे सामने सिर झुका देते थे। मेरे सामने…?
हाथ से अपनी ओर संकेत करता है।
बताओ मातुल में ऐसा क्या है जिसके आगे कोई सिर झुकाएगा ? मातुल न देवी है न देवता, न पंडित है, न राजा है। तो फिर क्यों कोई सिर झुका कर मातुल की वंदना करे ? परंतु नहीं। लोग मातुल की तो क्या मातुल के शरीर से उतरे वस्त्रों तक की वंदना करने को प्रस्तुत थे। और मैं बार-बार अपने को छू कर देखता था कि मेरा शरीर हाड़-मांस का ही है या चिकने पत्थर का हो गया है, जैसे मंदिरों में देवी-देवताओं का होता है।…यहाँ आ कर सबसे बड़ा सुख यही है कि न कोई झुक कर मेरी वंदना करता है और न ही मुझे भ्रम होता है कि मैं आगे चल रहा हूँ या प्रतिहारी आगे चल रहे हैं। केवल यह वर्षा मुझसे नहीं सही जाती।
मल्लिका : वस्त्र सुखाने के लिए आग जला दूँ ?
मातुल चूल्हे की ओर देखता है , फिर चारों ओर दृष्टि डालता है।
मातुल : तुमने घर की क्या अवस्था कर रखी है ! अंबिका के न रहने से घर की अवस्था ही नहीं रही।…यह ठीक है कि प्रियंगुमंजरी ने तुम्हारे लिए कुछ वस्त्र और स्वर्ण-मुद्राएँ भिजवाई थीं जो तुमने लौटा दी ?
मल्लिका : मुझे उनकी आवश्यकता नहीं थी।
मैले वस्त्रों के पास जा कर उनके नीचे से भोजपत्रों का बना ग्रंथ निकाल लेती है और उसकी धूल झाड़ने लगती है।
मातुल : और इस घर के परिसंस्कार के लिए भी उसने स्थपतियों से कहा था।
मल्लिका : मैंने किसी परिसंस्कार की आवश्यकता नहीं समझी।
ग्रंथ रखने के लिए इधर-उधर स्थान देखती है। फिर उसे मातुल के पास आसन पर रख देती है।
आग जला दूँ।
मातुल : नहीं, वर्षा थम रही है।
बैसाखी लिए हुए झरोखे के पास चला जाता है।
हलकी-हल्की बूँदें हैं। किसी तरह घिसटता हुआ घर पहुँच जाऊँ, तो वहीं वस्त्र सुखाऊँगा। कहीं फिर धारासार बरसने लगा तो बस…।
झरोखे से हट कर मल्लिका के पास आ जाता है।
तुमने काश्मीर का कुछ समाचार सुना है ?
मल्लिका गंभीर और स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : मैं हर समय घर में ही रहती हूँ। कहीं का भी समाचार कैसे सुन सकती हूँ ?
मातुल : मैंने सुना है। विश्वास नहीं होता, परंतु होता भी है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। जितना संभव है कि ऐसा न हो, उतना ही संभव है कि ऐसा हो। और यह भी संभव है कि जो हो, वह न हो…।
मल्लिका अप्रतिम-सी उसकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : परंतु समाचार क्या है ?
मातुल : समाचार यह है कि सम्राट का निधन हो गया है। काश्मीर में विद्रोही शक्तियाँ सिर उठा रही हैं। वहीं से आए एक आहत सैनिक का कहना है कि…कि कालिदास ने काश्मीर छोड़ दिया है ?
मल्लिका : उन्होंने काश्मीर छोड़ दिया है ?
वैसे ही अप्रतिभ-सी आसन पर बैठ जाती है।
और अब पुन: उज्जयिनी चले गए हैं ?
मातुल : नहीं। उज्जयिनी नहीं गया। वहाँ के लोगों का तो कहना है कि उसने संन्यास ले लिया है और काशी चला गया है। परंतु मुझे विश्वास नहीं होता। उसका राजधानी में इतना मान है। यदि काश्मीर में रहना संभव नहीं था, तो उसे सीधे राजधानी चले जाना चाहिए था। परंतु असंभव भी नहीं है। एक राजनीतिक जीवन दूसरे कालिदास। मैं आज तक दोनों में से किसी की भी धुरी नहीं पहचाना पाया। मैं समझता हूँ कि जो कुछ मैं समझ पाता हूँ, सत्य सदा उसके विपरीत होता है। और मैं जब उस विपरीत तक पहुँचने लगता हूँ, तो सत्य उस विपरीत से विपरीत हो जाता है। अत: मैं जो कुछ समझ पाता हूँ, वह सदा झूठ होता है। इससे अब तुम निष्कर्ष निकाल लो कि सत्य क्या हो सकता है कि उसने संन्यास ले लिया है, या नहीं लिया। मैं समझता हूँ कि उसने संन्यास नहीं लिया, इसलिए सत्य यही होना चाहिए कि उसने संन्यास ले लिया है और काशी चला गया है।
मल्लिका आसन से ग्रंथ उठा कर वक्ष से लगा लेती है।
मल्लिका : नहीं, यह सत्य नहीं हो सकता। मेरा हृदय इसे स्वीकार नहीं करता।
मातुल : मैंने तुमसे क्या कहा था ? कि मैं जो कहूँगा, वह कभी सत्य नहीं हो सकता ! इसलिए मैं कुछ नहीं कहता। वह काशी गया है, तो भी मैं झूठा हूँ। नहीं गया, तो भी झूठा हूँ।…यह तो ठीक है ?
बैसाखी पटकता हुआ चला जाता है। मल्लिका गुमसुम-सी आसन पर बैठी रहती है।
मल्लिका : नहीं, तुम काशी नहीं गए। तुमने संन्यास नहीं लिया। मैंने इसलिए तुमसे यहाँ से जाने के लिए नहीं कहा था।…मैंने इसलिए भी नहीं कहा था कि तुम जा कर कहीं का शासन-भार सँभालो। फिर भी जब तुमने ऐसा किया, मैंने तुम्हें शुभकामनाएँ दीं – यद्यपि प्रत्यक्ष तुमने वे शुभकामनाएँ ग्रहण नहीं की।
ग्रंथ को हाथों में लिए जैसे अभियोगपूर्ण दृष्टि से उसे देखती है।
मैं यद्यपि तुम्हारे जीवन में नहीं रही, परंतु तुम मेरे जीवन में सदा बने रहे हो। मैंने कभी तुम्हें अपने से दूर नहीं होने दिया। तुम रचना करते रहे, और मैं समझती रही कि मैं सार्थक हूँ, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है।
ग्रंथ घुटनों पर रख लेती है।
और आज तुम मेरे जीवन को इस तरह निरर्थक कर दोगे ?
ग्रंथ को आसन पर रख कर उद्विग्न दृष्टि से उसकी ओर देखती रहती है।
तुम जीवन से तटस्थ हो सकते हो, परंतु मैं तो अब तटस्थ नहीं हो सकती। क्या जीवन को तुम मेरी दृष्टि से देख सकते हो ? जानते हो मेरे जीवन के ये वर्ष कैसे व्यतीत हुए हैं ? मैंने क्या-क्या देखा है ? क्या से क्या हुई हूँ ?
उठ कर अंदर का किवाड़ खोल देती है और पालने की ओर संकेत करती है।
इस जीव को देखते हो ? पहचान सकते हो ? यह मल्लिका है जो धीरे-धीरे बड़ी हो रही है और माँ के स्थान पर अब मैं इसकी देखभाल करती हूँ।…यह मेरे अभाव की संतान है। जो भाव तुम थे, वह दूसरा नहीं हो सका, परंतु अभाव के कोष्ठ में किसी दूसरे की जाने कितनी-कितनी आकृतियाँ हैं ! जानते हो मैंने अपना नाम खो कर एक विशेषण उपार्जित किया है और अब मैं अपनी दृष्टि में नाम नहीं, केवल विशेषण हूँ।
किवाड़ बंद कर के आसन की ओर लौट पड़ती है।
व्यवसायी कहते थे, उज्जयिनी में अपवाद है, तुम्हारा बहुत-सा समय वारांगणाओं के सहवास में व्यतीत होता है।…परंतु तुमने वारांगणा का यह रूप भी देखा है ? आज तुम मुझे पहचान सकते हो ? मैं आज भी उसी तरह पर्वत-शिखर पर जा कर मेघ-मालाओं को देखती हूँ। उसी तरह ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ की पंक्तियाँ पढ़ती हूँ। मैंने अपने भाव के कोष्ठ को रिक्त नहीं होने दिया। परंतु मेरे अभाव की पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो ?
कुहनियाँ आसन पर रख कर बैठ जाती है। और ग्रथ हाथों में उठा लेती है।
नहीं, तुम अनुमान नहीं लगा सकते। तुमने लिखा था कि एक दोष गुणों के समूह में उसी तरह छिप जाता है, जैसे चाँद की किरणों में कलंक; परंतु दारिद्र्य नहीं छिपता। सौ-सौ गुणों में भी नहीं छिपता। नहीं, छिपता ही नहीं, सौ-सौ गुणों को छा लेता है – एक-एक कर के नष्ट कर देता है।
बोलती-बोलती और अंतर्मुख हो जाती है।
परंतु मैंने यह सब सह लिया। इसलिए कि मैं टूट कर भी अनुभव करती रही कि तुम बन रहे हो। क्योंकि मैं अपने को अपने में न देख कर तुममें देखती थी। और आज यह सुन रही हूँ कि तुम सब छोड़ कर संन्यास ले रहे हो ? तटस्थ हो रहे हो ? उदासीन ? मुझे मेरी सत्ता के बोध से इस तरह वंचित कर दोगे ?
बिजली कौंधती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है।
वही आषाढ़ का दिन है। उसी तरह मेघ गरज रहे हैं। वैसे ही वर्षा हो रही है। वही मैं हूँ। उसी घर में हूँ। किंतु…!
पुन: बिजली कौंधती है , मेघ-गर्जन सुनाई देता है और ड्योढ़ी का द्वार धीरे-धीरे खुलता है। कालिदास क्षत-विक्षत-सा , द्वार खोल कर ड्योढ़ी में ही खड़ा रहता है। मल्लिका किवाड़ खुलने के शब्द से उधर देखती है और सहसा उठ खड़ी होती है। कालिदास अंदर आता है। मल्लिका जड़-सी उसे देखती रहती है।
कालिदास : संभवत: पहचानती नहीं हो।
मल्लिका उसी तरह देखती रहती है। कालिदास प्रकोष्ठ में इधर-उधर देखता है , फिर मल्लिका पर सिर से पैर तक एक दृष्टि डाल कर आसन की ओर चला जाता है।
और न पहचानना ही स्वाभाविक है, क्योंकि मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसे तुम पहले पहचानती रही हो। दूसरा व्यक्ति हूँ।
बाँहें पीछे टिका कर आसन पर बैठ जाता है।
और सच कहूँ तो वह व्यक्ति हूँ जिसे मैं स्वयं नहीं पहचानता !…तुम इस तरह जड़-सी क्यों खड़ी हो ? मुझे देख कर बहुत आश्चर्य हुआ ?
मल्लिका किवाड़ बंद कर देती है। फिर खोई-सी उसकी ओर बढ़ आती है।
मल्लिका : आश्चर्य ?…मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा कि तुम तुम हो, और मैं जो तुम्हें देख रही हूँ, वास्तव में मैं ही हूँ !
कालिदास : देख रहा हूँ कि तुम भी वह नहीं हो। सब कुछ बदल गया है। या संभव है कि परिवर्तन केवल मेरी दृष्टि में हुआ है।
मल्लिका : मुझे विश्वास नहीं होता कि यह स्वप्न नहीं है…।
कालिदास : नहीं, स्वप्न नहीं है। यथार्थ है कि मैं यहाँ हूँ। दिनों की यात्रा कर के थका, टूटा-हारा हुआ यहाँ आया हूँ कि एक बार यहाँ के यथार्थ को देख लूँ।
मल्लिका : बहुत भीग गए हो। मेरे यहाँ सूखे वस्त्र तो नहीं हैं, पर मैं…।
कालिदास : मेरे भीगे होने की चिंता मत करो।…जानती हो, इस तरह भीगना भी जीवन की एक महत्त्वाकांक्षा हो सकती है ? वर्षों के बाद भीगा हूँ। अभी सूखना नहीं चाहता। चलते-चलते बहुत थक गया था। कई दिन ज्वर आता रहा। परंतु इस वर्षा से जैसे सारी थकान मिट गई है…।
मल्लिका उसके और पास चली जाती है।
मल्लिका : बहुत थक गए हो ?
कालिदास : थक गया था। अब भी थका हूँ परंतु वर्षा ने थकान कम कर दी है।
मल्लिका : तुम सचमुच पहचाने नहीं जाते।
कालिदास क्षण भर उसे देखता रहता है। फिर उठ कर झरोखे के पास चला जाता है।
कालिदास : और तुम्हीं कहाँ पहचानी जाती हो ? यह घर भी कितना बदल गया है ! और मैं आशा कर रहा था कि सब कुछ वैसा ही होगा, ज्यों का त्यों, यथास्थान।…पर कुछ भी तो यथास्थान नहीं है।
चारों ओर देखता है।
तुमने सब कुछ बदल दिया है। सभी कुछ बदल दिया है।
मल्लिका : मैंने नहीं बदला।
कालिदास उसकी ओर देखता है , फिर टहलने लगता है।
कालिदास : जानता हूँ तुमने नहीं बदला। परंतु मल्लिका…।
उसके पास आ जाता है।
मैंने नहीं सोचा था कि यह घर कभी मुझे अपरिचित भी लग सकता है। यहाँ की प्रत्येक वस्तु का स्थान और विन्यास इतना निश्चित था। परंतु आज सब कुछ अपरिचित लग रहा है, और…
उसकी आँखों में देखता है।
…और तुम भी। तुम भी अपरिचित लग रही हो। इसलिए कहता हूँ कि संभव है दृश्य उतना नहीं बदला जितना मेरी दृष्टि बदल गई है।
मल्लिका : थके हो, बैठ जाओ। आँखों से लगता है, तुम अब भी स्वस्थ नहीं हो।
कालिदास : बहुत दिन इधर-उधर भटकने के बाद यहाँ आया हूँ। काश्मीर जाते हुए जिस कारण से नहीं आया था, आज उसी कारण से आया हूँ।
क्षण-भर दोनों की आँखें मिली रहती हैं।
मल्लिका : आर्य मातुल से आज ही पता चला था कि तुमने काश्मीर छोड़ दिया है।
कालिदास : हाँ, क्योंकि सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है। आज मैं उस सबसे मुक्त हूँ जो वर्षों से मुझे कसता रहा है। काश्मीर में लेाग समझते हैं कि मैंने संन्यास ले लिया है। परंतु मैंने संन्यास नहीं लिया। मैं केवल मातृगुप्त के कलेवर से मुक्त हुआ हूँ जिससे पुन: कालिदास के कलेवर में जी सकूँ। एक आकर्षण सदा मुझे उस सूत्र की ओर खींचता था जिसे तोड़ कर मैं यहाँ से गया था। यहाँ की एक-एक वस्तु में जो आत्मीयता थी, वह यहाँ से जा कर मुझे कहीं नहीं मिली। मुझे यहाँ की एक-एक वस्तु के रूप और आकार का स्मरण है।
फिर प्रकोष्ठ में आसपास देखता है।
कुंभ, बाघ-छाल, कुशा, दीपक, गेरू की आकृतियाँ…और तुम्हारी आँखें। जाने के दिन तुम्हारी आँखों का जो रूप देखा था, वह आज तक मेरी स्मृति में अंकित है। मैं अपने को विश्वास दिलाता रहा हूँ कि कभी भी लौट कर आऊँ, यहाँ सब कुछ वैसा ही होगा।
कोई द्वार खटखटाता है। मल्लिका अव्यवस्थित हो कर उस ओर देखती है। कालिदास द्वार की ओर जाना चाहता है , पर वह उसे रोक देती है।
मल्लिका : द्वार बंद रहने दो। तुम जो बात कर रहे हो, करते जाओ।
कालिदास : देख तो लो कौन आया है।
मल्लिका : वर्षा का दिन है। कोई भी हो सकता है। तुम बात करते रहो। वह चला जाएगा।
बाहर से आगंतुक नशे के स्वर में झल्लाता हुआ लौट जाता है.. .’हर समय द्वार बंद…हैं ? हर समय द्वार बंद !’
कालिदास : कौन था यह ?
मल्लिका : कहा है न कोई भी हो सकता है। वर्षा में जिस किसी को आश्रय की आवश्यकता पड़ सकती है।
कालिदास : परंतु मुझे इसका स्वर बहुत विचित्र-सा लगा।
मल्लिका : तुम यहाँ के संबंध में बात कर रहे थे।
कालिदास : लगा जैसे मैं इस स्वर को पहचानता हूँ। जैसे यहाँ की हर वस्तु की तरह यह भी किसी परिचित स्वर का बदला हुआ रूप है।
मल्लिका : तुम थके हुए हो और अस्वस्थ हो। बैठ कर बात करो।
कालिदास एक नि:श्वास छोड़ कर आसन पर बैठ जाता है। मल्लिका घुटनों पर बाँहें रख कर कुछ दूर नीचे बैठ जाती है।
कालिदास : मैंने बहुत बार अपने संबंध में सोचा है मल्लिका, और हर बार इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अंबिका ठीक कहती थी।
बाँहें पीछे की ओर फैल जाती हैं और आँखें छत की ओर उठ जाती हैं।
मैं यहाँ से क्यों नहीं जाना चाहता था ? एक कारण यह भी था कि मुझे अपने पर विश्वास नहीं था। मैं नहीं जानता था कि अभाव और भत्र्सना का जीवन व्यतीत करने के बाद प्रतिष्ठा और सम्मान के वातावरण में जा कर मैं कैसा अनुभव करूँगा। मन में कहीं यह आशंका थी कि वह वातावरण मुझे छा लेगा और मेरे जीवन की दिशा बदल देगा…और यह आशंका निराधार नहीं थी।
आँखें मल्लिका की ओर झुक आती हैं।
तुम्हें बहुत आश्चर्य हुआ था कि मैं काश्मीर का शासन सँभालने जा रहा हूँ ? तुम्हें यह बहुत अस्वाभाविक लगा होगा। परंतु मुझे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता। अभावपूर्ण जीवन की वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। संभवत: उसमें कहीं उन सबसे प्रतिशोध लेने की भावना भी थी जिन्होंने जब-तब मेरी भर्तस्ना की थी, मेरा उपहास उड़ाया था।
होंठ काट कर उठ पड़ता है और झरोखे के पास चला जाता है।

परंतु मैं यह भी जानता था कि मैं सुखी नहीं हो सकता। मैंने बार-बार अपने को विश्वास दिलाना चाहा कि कमी उस वातावरण में नहीं, मुझमें है। मैं अपने को बदल लूँ, तो सुखी हो सकता हूँ। परंतु ऐसा नहीं हुआ। न तो मैं बदल सका, न सुखी हो सका। अधिकार मिला, सम्मान बहुत मिला, जो कुछ मैंने लिखा उसकी प्रतिलिपियाँ देश-भर में पहुँच गईं, परंतु मैं सुखी नहीं हुआ। किसी और के लिए वह वातावरण और जीवन स्वाभाविक हो सकता था, मेरे लिए नहीं था। एक राज्याधिकारी का कार्यक्षेत्र मेरे कार्यक्षेत्र से भिन्न था। मुझे बार-बार अनुभव होता कि मैंने प्रभुता और सुविधा के मोह में पड़ कर उस क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश किया है, और जिस विशाल में मुझे रहना चाहिए था उससे दूर हट आया हूँ। जब भी मेरी आँखें दूर तक फैली क्षितिज-रेखा पर पड़तीं, तभी यह अनुभूति मुझे सालती कि मैं उस विशाल से दूर हट आया हूँ। मैं अपने को आश्वासन देता कि आज नहीं तो कल मैं परिस्थितियों पर वश पा लूँगा और समान रूप से दोनों क्षेत्रों में अपने को बाँट दूँगा। परंतु मैं स्वयं ही परिस्थितियों के हाथों बनता और चालित होता रहा। जिस कल की मुझे प्रतीक्षा थी, वह कल कभी नहीं आया और मैं धीरे-धीरे खंडित होता गया, होता गया। और एक दिन…एक दिन मैंने पाया कि मैं सर्वथा टूट गया हूँ। मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसका उस विशाल के साथ कुछ भी संबंध था।

क्षण भर वह चुप रहता है। फिर टहलने लगता है।
काश्मीर जाते हुए मैं यहाँ से हो कर नहीं जाना चाहता था। मुझे लगता था कि यह प्रदेश, यहाँ की पर्वत-शृंखला और उपत्यकाएँ मेरे सामने एक मूक प्रश्न का रूप ले लेंगी। फिर भी लोभ का संवरण नहीं हुआ। परंतु उस बार यहाँ आ कर मैं सुखी नहीं हुआ। मुझे अपने से वितृष्णा हुई। उनसे भी वितृष्णा हुई जिन्होंने मेरे आने के दिन को उत्सव की तरह माना। तब पहली बार मेरा मन मुक्ति के लिए व्याकुल हुआ था। परंतु उस समय मुक्त होना संभव नहीं था। मैं तब तुमसे मिलने के लिए नहीं आया क्योंकि भय था तुम्हारी आँखें मेरे अस्थिर मन को और अस्थिर कर देंगी। मैं इससे बचना चाहता था। उसका कुछ भी परिणाम हो सकता था। मैं जानता था तुम पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, दूसरे तुमसे क्या कहेंगे। फिर भी उस संबंध में निश्चिंत था कि तुम्हारे मन में कोई वैसा भाव नहीं आएगा। और मैं यह आशा लिए हुए चला गया कि एक कल ऐसा आएगा जब मैं तुमसे यह सब कह सकूँगा और तुम्हें अपने मन के द्वंद्व का विश्वास दिला सकूँगा।…यह नहीं सोचा कि द्वंद्व एक ही व्यक्ति तक सीमित नहीं होता, परिवर्तन एक ही दिशा को व्याप्त नहीं करता। इसलिए आज यहाँ आ कर बहुत व्यर्थता का बोध हो रहा है।
फिर झरोखे के पास चला जाता है।
लोग सोचते हैं मैंने उस जीवन और वातावरण में रह कर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ कि मैंने वहाँ रह कर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। ‘कुमार संभव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। ‘मेघदूत’ के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरहविमर्दिता यक्षिणी तुम हो – यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में शकुंतला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया। और जब उससे हट कर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान नहीं हुई। ‘रघुवंश’ में अज का विलाप मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति है और…।
मल्लिका दोनों हाथों में मुँह छिपा लेती है। कालिदास सहसा बोलते-बोलते रुक जाता है और क्षण-भर उसकी ओर देखता रहता है।
चाहता था, तुम यह सब पढ़ पातीं, परंतु सूत्र कुछ इस रूप में टूटा था कि…
मल्लिका मुँह से हाथ हटा कर नकारात्मक भाव से सिर हिलाती है।
मल्लिका : वह सूत्र कभी नहीं टूटा।
उठ कर वस्त्र में लिपटे पन्ने कोने से उठा लाती है और कालिदास के हाथ में रख देती है। कालिदास पन्ने पलट कर देखता है।
कालिदास : ‘मेघदूत’ ! तुम्हारे पास ‘मेघदूत’ की प्रतिलिपि कैसे पहुँच गई ?
मल्लिका : मेरे पास तुम्हारी सब रचनाएँ हैं। ‘रघुवंश’ और ‘शाकुंतलम’ की प्रतियाँ कुछ ही मास पहले मुझे मिल पाई हैं।
कालिदास : तुम्हारे पास मेरी सब रचनाएँ हैं ? परंतु वे यहाँ कैसे उपलब्ध हुईं ? क्या…?
मल्लिका : उज्जयिनी के व्यवसायी कभी-कभी इस मार्ग से हो कर भी जाते हैं।
कालिदास : और उनके पास ये प्रतिलिपियाँ मिल जाती हैं ?
मल्लिका : मैंने कह कर मँगवाई थीं। वर्ष-दो वर्ष में कहीं एक प्रतिलिपि मिल पाती थी।
कालिदास : और इनके लिए धन ?
मल्लिका : वर्ष-दो वर्ष में एक प्रति मिल पाती थी। धन एकत्रित करने के लिए बहुत समय रहता था।
कालिदास सिर झुकाए आसन पर आ बैठता है।
कालिदास : जो अभाव वर्षों से मुझे सालते रहे हैं, वे आज और बड़े प्रतीत होते हैं, मल्लिका ! मुझे वर्षों पहले यहाँ लौट आना चाहिए था ताकि यहाँ वर्षा में भीगता, भीग कर लिखता – वह सब जो मैं अब तक नहीं लिख पाया और जो आषाढ़ के मेघों की तरह वर्षों से मेरे अंदर घुमड़ रहा है।
नि:श्वास छोड़ कर आसन पर रखे ग्रंथों को उठा लेता है और उसके पन्ने पलटने लगता है।
परंतु बरस नहीं पाता। क्योंकि उसे ऋतु नहीं मिलती। वायु नहीं मिलती।…यह कौन-सी रचना है ? ये तो केवल कोरे पृष्ठ हैं।
मल्लिका : ये पन्ने अपने हाथों से बना कर सिए थे। सोचा था तुम राजधानी से आओगे, तो मैं तुम्हें यह भेंट दूँगी। कहूँगी कि इन पृष्ठों पर अपने सबसे बड़े कहाकाव्य की रचना करना। परंतु उस बार तुम आ कर भी नहीं आए और यह भेंट यहीं पड़ी रही। अब तो ये पन्ने टूटने भी लगे हैं, और मुझे कहते संकोच होता है कि ये तुम्हारी रचना के लिए हैं।
कालिदास पन्ने पलटता जाता है।
कालिदास : तुमने ये पृष्ठ अपने हाथों से बनाए थे कि इन पर मैं एक महाकाव्य की रचना करूँ !
पन्ने पलटते हुए एक स्थान पर रुक जाता है।
स्थान-स्थान पर इन पर पानी की बूँदें पड़ी हैं जो नि:संदेह वर्षा की बूँदें नहीं हैं। लगता है तुमने अपनी आँखों से इन कोरे पृष्ठों पर बहुत कुछ लिखा है। और आँखों से ही नहीं, स्थान-स्थान पर ये पृष्ठ स्वेद-कणों से मैले हुए हैं, स्थान-स्थान पर फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग इन पर छोड़ दिए हैं। कई स्थानों पर तुम्हारे नखों ने इन्हें छीला है, तुम्हारे दाँतों ने इन्हें काटा है। और इसके अतिरिक्त ये ग्रीष्म की धूप के हलके-गहरे रंग, हेमंत की पत्रधूलि और इस घर की सीलन…ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ हैं मल्लिका ? इन पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है…अनंत सर्गों के एक महाकाव्य की।
ग्रंथ रख देता है।
इन पृष्ठों पर अब नया कुछ क्या लिखा जा सकता है ?
उठ कर झरोखे के पास चला जाता है। कुछ क्षण बाहर देखता रहता है। फिर मल्लिका की ओर मुड़ आता है।
परंतु इससे आगे भी तो जीवन शेष है। हम फिर अर्थ से आरंभ कर सकते हैं।
अंदर से बच्ची के कुनमुनाने और रोने का शब्द सुनाई देता है। मल्लिका सहसा उठ कर उद्विग्न भाव से उस ओर चल देती है। कालिदास हतप्रभ-सा उसे जाते देखता है।
कालिदास : मल्लिका !
मल्लिका रुक कर उसकी ओर देखती है।
कालिदास : किसके रोने का शब्द है यह ?
मल्लिका : यह मेरा वर्तमान है।
अंदर चली जाती है। कालिदास स्तंभित-सा प्रकोष्ठ के बीचों-बीच आ जाता है।
कालिदास : तुम्हारा वर्तमान ?
कोई द्वार खटखटाता है। फिर पैर की चोट से द्वार अपने आप खुल जाता है। ड्योढ़ी में विलोम द्वार को कोसता खड़ा है। वस्त्र कीचड़ से लथपथ हैं। वह झूलता-सा अंदर आता है।
विलोम : भीगे दिन में फिसल कर गिरे और गिरे खाई में।…कितनी बार कहा है भैया विलोम, बहुत ऊँचे मत चढ़ा करो। परंतु भैया विलोम क्यों मानने लगे ? पहले आए, तो द्वार बंद। लौट कर गए और फिसल गए। फिर आए, तो द्वार बंद। फिर लौट कर जाते, तो क्या होता ? आज का दिन ही ऐसा है कि…।
कालिदास को देख कर बोलते-बोलते रुक जाता है। दृष्टि का भाव ऐसा हो जाता है जैसे किसी बहुत सूक्ष्म वस्तु का अध्ययन कर रहा हो।
न जाने आँखों को क्या हो गया है ? कभी अपरिचित आकृतियाँ बहुत परिचित जान पड़ती हैं और कभी परिचित आकृतियाँ भी परिचित नहीं लगतीं।…अब यह इतनी परिचित आकृति है और मैं इसे पहचान ही नहीं रहा। आकृति जानी हुई है और व्यक्ति नया-सा लगता है।…क्यों बंधु, तुम मुझे पहचानते हो ?
मल्लिका अंदर से आती है और विलोम को देख कर द्वार के पास जड़ हो जाती है।
कालिदास : आकृति बहुत बदल गई है, परंतु व्यक्ति आज भी वही है।
विलोम : स्वर भी परिचित है और शब्द भी।
आँखें स्थिर कर के देखने का प्रयत्न करता है। फिर सहसा हँस उठता है।
तो तुम हो, तुम ?…गिरने और चोट खाने का सारा कष्ट दूर हो गया ! कितने दिनों से तुम्हें देखने की लालसा मन में थी। आओ…।
उसकी ओर बाँहें बढ़ाता है , परंतु कालिदास उसके सामने से हट जाता है।
गले नहीं मिलोगे ? मेरा शरीर मैला है, इसलिए ? या मुझी से घृणा है ? परंतु इस तरह मेरा-तुम्हारा संबंध नहीं टूट सकता। तुमने कहा था न कि हम एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं। नहीं कहा था ? मैंने इन वर्षों में उस निकटता में अंतर नहीं आने दिया। मैं तो समझता हूँ कि अब हम एक-दूसरे के और भी निकट पड़ते हैं।
मल्लिका की ओर मुड़ता है।
क्यों मल्लिका, मैं ठीक नहीं कहता ?…तुम वहाँ स्तंभित-सी क्यों खड़ी हो ? विलोम इस घर में अब तो अयाचित अतिथि नहीं है। अब तो वह अधिकार से आता है। नहीं ? अब तो वह इस घर में कालिदास का स्वागत और आतिथ्य कर सकता है। नहीं ?
फिर कालिदास की ओर मुड़ता है।
कहोगे कितनी आकस्मिक बात है कि तब भी मुझसे इसी घर में भेंट हुई थी और आज भी यहीं हुई है। परंतु सच मानो, यह आकस्मिक बात नहीं है। तुम जब भी आते, हमारी भेंट यहीं होती।
मल्लिका की ओर मुड़ता है।
तुमने अब तक कालिदास के आतिथ्य का उपक्रम नहीं किया ? वर्षों के बाद एक अतिथि घर में आए और उसका आतिथ्य न हो ? जानती हो ? कालिदास को इस प्रदेश के हरिणशावकों का कितना मोह है…?
फिर कालिदास की ओर मुड़ता है।
एक हरिणशावक इस घर में भी है।…तुमने मल्लिका की बच्ची को नहीं देखा ? उसकी आँखें किसी हरिणशावक से कम सुंदर नहीं हैं। और जानते हो अष्टावक्र क्या कहता है ? कहता है…।
मल्लिका सहसा आगे बढ़ जाती है।
मल्लिका : आर्य विलोम !
विलोम हँसता है।
विलोम : तुम नहीं चाहतीं कि कालिदास यह जाने कि अष्टावक्र क्या कहता है। परंतु मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं होता। मैं इसलिए कह रहा था कि संभव है कालिदास ही देख कर बता सके कि अष्टावक्र की बात कहाँ तक सच है। क्या बच्ची की आकृति सचमुच विलोम से मिलती है या…?
मल्लिका हाथों में मुँह छिपाए आसन पर जा बैठती है। विलोम कालिदास के पास चला जाता है।
चलो, देखोगे ?
कालिदास : यहाँ से चले जाओ, विलोम।
विलोम : चला जाऊँ ?
हँसता है।
इस घर से या ग्राम-प्रांतर से ही ? सुना है शासन बहुत बली होता है। प्रभुता में बहुत सामर्थ्य होती है।
कालिदास : मैं कह रहा हूँ इस समय यहाँ से चले जाओ।
विलोम : क्योंकि तुम यहाँ लौट आए हो ?…क्योंकि वर्षों से छोड़ी हुई भूमि आज फिर तुम्हें अपनी प्रतीत होने लगी है ?…क्योंकि तुम्हारे अधिकार शाश्वत हैं ?
हँसता है।
जैसे तुमसे बाहर जीवन की गति ही नहीं है। तुम्हीं तुम हो और कोई नहीं है। परंतु समय निर्दय नहीं है। उसने औरों को भी सत्ता दी है। अधिकार दिए हैं। वह धूप और नैवेद्य लिए घर की देहली पर रुका नहीं रहा। उसने औरों को अवसर दिया है ! निर्माण किया है।…तुम्हें उसके निर्माण से वितृष्णा होती है ? क्योंकि तुम जहाँ अपने को देखना चाहते हो, नहीं देख पा रहे ?
कई क्षण उसकी ओर देखता रहता है। फिर हँसता है।
…तुम चाहते हो इस समय मैं यहाँ से चला जाऊँ। मैं चला जाता हूँ। इसलिए नहीं कि तुम आदेश देते हो। परंतु इसलिए कि तुम आज यहाँ अतिथि हो, और अतिथि की इच्छा का मान होना चाहिए।
द्वार की ओर चल देता है। द्वार के पास रुक कर मल्लिका की ओर देखता है।
देखना मल्लिका, आतिथ्य में कोई कमी न रहे। जो अतिथि वर्षों में एक बार आया है वह आगे जाने कभी आएगा या नहीं।
अर्थपूर्ण दृष्टि से दोनों की ओर देखता है और चला जाता है। मल्लिका मुँह से हाथ हटा कर कालिदास की ओर देखती है। कुछ क्षण दोनों चुप रहते हैं।
मल्लिका : क्या सोच रहे हो ?
कालिदास झरोखे के पास चला जाता है।
कालिदास : सोच रहा हूँ कि वह आषाढ़ का ऐसा ही दिन था। ऐसे ही घाटी में मेघ भरे थे और असमय अँधेरा हो आया था। मैंने घाटी में एक आहत हरिणशावक को देखा था और उठा कर यहाँ ले आया था। तुमने उसका उपचार किया था।
मल्लिका उठ कर उसके पास चली जाती है।
मल्लिका : और भी तो कुछ सोच रहे हो !
कालिदास : और सोच रहा हूँ कि उपत्यकाओं का विस्तार वही है। पर्वत-शिखर की ओर जाने वाला मार्ग भी वही है। वायु में वैसी ही नमी है। वातावरण की ध्वनियाँ भी वैसी ही हैं।
मल्लिका : और ?
कालिदास : और कि वही चेतना है जिसमें कंपन होता है। वही हृदय है जिसमें आवेश जागता है। परंतु…।
मल्लिका चुपचाप उसकी ओर देखती रहती है। कालिदास वहाँ से हट कर आसन के पास आ जाता है और वहाँ से ग्रंथ उठा लेता है।
परंतु यह कोरे पृष्ठों का महाकाव्य तब नहीं लिखा गया था।
मल्लिका : तुम कह रहे थे कि तुम फिर अथ से आरंभ करना चाहते हो।
कालिदास नि:श्वास छोड़ता है।
कालिदास : मैंने कहा था मैं अथ से आरंभ करना चाहता हूँ। यह संभवत: इच्छा का समय के साथ द्वंद्व था। परंतु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली है क्योंकि…।
मल्लिका : क्योंकि ?
फिर अंदर से बच्ची के रोने का शब्द सुनाई देता है। मल्लिका झट से अंदर चली जाती है। कालिदास ग्रंथ आसन पर रखता हुआ जैसे अपने को उत्तर देता है।
कालिदास : क्योंकि वह प्रतीक्षा नहीं करता।
बिजली चमकती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है। कालिदास एक बार चारों ओर देखता है , फिर झरोखे के पास चला जाता है। वर्षा पड़ने लगती है। वह झरोखे के पास आ कर ग्रंथ को एक बार फिर उठा कर देखता है और रख देता है। फिर एक दृष्टि अंदर की ओर डाल कर ड्योढ़ी में चला जाता है। क्षण-भर सोचता-सा वहाँ रुका रहता है। फिर बाहर से दोनों किवाड़ मिला देता है। वर्षा और मेघ-गर्जन का शब्द बढ़ जाता है। कुछ क्षणों के बाद मल्लिका बच्ची को वक्ष से सटाए अंदर आती है और कालिदास को न देख कर दौड़ती-सी झरोखे के पास चली जाती है।
मल्लिका : कालिदास !
उसी तरह झरोखे के पास से आ कर ड्योढ़ी के किवाड़ खोल देती है।
कालिदास !
पैर बाहर की ओर बढ़ने लगते हैं परंतु बच्ची को बाँहों में देख कर जैसे वहीं जकड़ जाती है। फिर टूटी-सी आ कर आसन पर बैठ जाती है और बच्ची को और साथ सटा कर रोती हुई उसे चूमने लगती है। बिजली बार-बार चमकती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता रहता है। (पर्दा गिरता है)

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